SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एस धम्मो सनंतनो दस लाख रुपए! छाती जोर से धड़कने लगी। खून तेजी से बहने लगा। सदा ठीक से सो पाया था, उस रात नहीं सो पाया। उधेड़बुन ! उधेड़बुन! क्या करूं क्या न करूं? दस लाख रुपए का करूं क्या? __दूसरे दिन उसने जाकर अपनी दुकान में ताला लगा दिया और चाबी कुएं में फेंक दी-कि अब जरूरत क्या है! बात खतम हो गयी। अब क्या दर्जी रहना है! कारें खरीद लीं। शराब खरीद ली। बड़ा मकान खरीद लिया। वेश्याओं के घर बैठकों में सम्मिलित होने लगा। अब करना क्या है और! सदा स्वस्थ रहा था। सालभर में बिलकुल जरा-जीर्ण हो गया। सालभर बाद जो उसे देखते, पहचान भी न पाते। वे कहते : यह तुम्हारी क्या हालत हो गयी! अब शराब, और वेश्याएं, और नाच, और गान, और आधी-आधी रात तक भटकना, और आधे-आधे दुपहर तक सोना। और कुछ भी खाना, कुछ भी पीना! वह तो सोच रहा था, बड़ा सुख ले रहे हैं। लेकिन सालभर में उसकी हालत बिलकुल खस्ता हो गयी। सालभर में वे दस लाख फूंक डाले। दस लाख उसने फूंक डाले, दस लाख ने उसे फूंक डाला। गरीब था, तब कभी इस तरह के उपद्रव जिंदगी में आए भी नहीं। उपद्रव के लिए भी सुविधा चाहिए न! उपद्रव भी सभी की क्षमता तो नहीं। गरीब एक तरह के दुख झेलता है, अमीर दूसरे तरह के दुख झेलता है। गरीब दुख झेलता है : पैसे न होने के। अमीर दुख झेलता है : पैसे होने के। दुख दोनों झेलते हैं! और अगर तुम गौर से देखो, और ठीक से निरीक्षण करो, निष्पक्ष भाव से, तो तुम गरीब से अमीर को ज्यादा दुखी पाओगे। गरीब को तो आशा भी रहती है; अमीर को आशा भी नहीं है कि इस झंझट के बाहर कभी हो पाएगा। चिंताओं के जाल। सालभर बाद जब सब बरबाद हो गया और वह आदमी थका-मांदा खड़ा रह गया। वेश्याओं के जो द्वार-दरवाजे सदा उसके लिए खुले थे, बंद हो गए। मित्र साथ घूमते थे, भीड़ लगी रहती थी, वे सब विदा हो गए। अब तो सिर्फ वे ही लोग उसका पीछा करते, जिनका वह कर्जदार हो गया था। दस लाख तो गए थे, और दो-चार लाख का कर्ज ऊपर छोड़ गए थे। उसने आत्महत्या करने का विचार किया। लेकिन वह भी हिम्मत नहीं जुटा पाया। डरा। कुएं में उतरा। सोचा था, मर जाऊं। लेकिन चाबी खोजकर बाहर निकल आया। फिर अपनी दुकान खोल ली। फिर अपने कपड़े सीने लगा। अब और कष्ट हो गया, भयंकर कष्ट हो गया। क्योंकि एक बार धन जान लिया, अब निर्धनता और भी भारी छाती में चुभने लगी। मगर पुरानी आदत! वह एक रुपए की टिकट हर महीने फिर भी खरीदता रहा। और भगवान से रोज प्रार्थना भी करता था ः हे प्रभु, अब दुबारा मत दिलवाना। ऐसा 256
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy