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________________ एस धम्मो सनंतनो धर्म का सार है-दान। दान से अर्थ : धन का ही दान नहीं है; दान से अर्थ है: जो है जिसके पास-दे, बांटे; रोके नहीं। ज्ञान है-तो ज्ञान दे। शक्ति है-तो शक्ति दे। गीत है-तो गीत बांटे। क्योंकि बांटने से ही आत्मा उपलब्ध होती है। जो जितना रोकता है, उतना ही रुक जाता है। रोकने में रुक जाना है; देने में फैलाव है। जो जितना बांटता है, उतना फैलता चला जाता है। जो जितना बांटता है, उतना बड़ा हो जाता है। जो सब बांट देता है, जो भीतर शून्य हो जाता है, वही परमात्मा के निवास के योग्य हो जाता है। .. तो दान की परिसीमा है-शून्यता; मेरा कुछ भी न बचे; मैं भी न बचें मेरा। जिससे पाया है, सब उसी स्रोत को वापस लौट जाए। जैसे गंगा अपने को पूरा सागर में उंडेल देती है; उसी से पाया, उसी को लौटा दिया। त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव समर्पये। जो मिला है, वह तुम्हारा नहीं है। वह किसी का भी नहीं है। है.तो परमात्मा का है। इस परमात्मा की वस्तु पर मेरे का आरोपण लोभ है। लोभ पाप है। इस परमात्मा की वस्तु पर मेरे का आरोपण नहीं—दान है। दान पुण्य है। जो हो जिसके पास–बांटता चले, लुटाता चले। जीसस का प्रसिद्ध वचन है : जो देगा, उसे और मिलेगा। जो बांटेगा, वह और पाने का हकदार हो जाता है। जो रोक लेता है, सड़ जाता है। . जैसे कोई कुएं से पानी न भरे इस डर से कि कहीं पानी खर्च न हो जाए। कुएं को बंद करके ताला लगाकर रख दे कि कहीं पानी मेरा चुक न जाए। कभी ग्रीष्म आए, अड़चन हो, अकाल पड़े तो मेरा पानी चुक न जाए। रोककर रखं, सम्हालकर रखू; तिजोड़ी में रख ले कुएं को। उसका कुआं सड़ जाएगा। उसमें जीवन की धार नहीं बहेगी। उसका पानी गंदा होता रहेगा। धीरे-धीरे उसका पानी विषाक्त हो जाएगा, पीने योग्य नहीं रह जाएगा। कुएं का जल निर्मल होता, ताजा होता, क्योंकि रोज-रोज पानी भरा जाता। कुआं रोज-रोज लुटाता है। और जब कुआं लुटाता है, तो नए झरने उसे भरते चले जाते हैं। तो कुआं जवान रहता है; बूढ़ा नहीं होता। सड़ता नहीं; गलता नहीं। गंदा नहीं होता। नदी बहती रहती है, तो स्वच्छ, उज्ज्वल रहती है। जहां नदी अटकी, वहीं सड़ांध है। जीवन की नदी के संबंध में भी यही सत्य है।. दान धर्म का मूल है। और खयाल रखना, फिर दोहरा दूं। अक्सर तुमने सोच लिया है कि दान यानी धन का दान। क्योंकि हम धन के ऐसे दीवाने हैं कि हम संसार के संबंध में सोचते, तो धन के संबंध में सोचते। और धर्म के संबंध में सोचते हैं, 212
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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