SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बोध से मार पर विजय 'मैं तृष्णा के नाश से मुक्त हूं।' यह बड़ा अजीब वचन है। बुद्ध यह नहीं कहते कि मैं तृष्णा से मुक्त हूं। बुद्ध कहते हैं, मैं तृष्णा से तो मुक्त हूं ही; मैं तृष्णा के नाश से भी मुक्त हूं। तृष्णा तो गयी ही, अतृष्णा भी गयी। नहीं तो उलटा हो जाता है। संसार पकड़े थे पहले; फिर संसार तो छोड़ दिया, फिर संन्यास पकड़ लिया। मगर पकड़ कायम रही! धन पकड़े थे पहले। धन तो छोड़ दिया, अब निर्धनता पकड़ ली! मगर पकड़ जारी रही। बुद्ध कहते हैं : परम त्याग तो तब है, जब त्याग भी छूट जाए। परम संन्यास तो तब है, जब संसार तो छूटे ही छूटे, संन्यास से भी मुक्ति हो जाए। नहीं तो वह भी पकड़ बन जाएगा। तो कुछ फायदा न हुआ। मुट्ठी पूरी खुल जानी चाहिए। ___'मैं तृष्णा से मुक्त, तृष्णा के नाश से मुक्त हूं। मैं स्वयं ही विमल ज्ञान को जानकर जागा। मैं किसको गरु कहं?' ___ और इतना ही नहीं वे कहते कि मैं किसको गुरु कहूं। वे कहते हैं, 'मैं किसको शिष्य सिखाऊं?' ___ न मैंने किसी से पाया! मैंने अपने भीतर पाया। तो जो मेरे पास आएंगे, वे भी अपने भीतर ही पाएंगे। शिष्य कहने से क्या सार है! इसलिए बुद्ध ने कहाः मैं मित्र हूं। न तो गुरु तुम्हारा; न तुम मेरे शिष्य। मैं मित्र हूं। और बुद्ध ने कहा कि मेरा जो भविष्य में पुनः आगमन होगा, मेरा नाम होगा-मैत्रेय। तब मैं परिपूर्ण मित्र रूप में प्रगट होऊंगा। अंतिम दृश्यः एक बार देवताओं में यह प्रश्न उठा कि दानों में कौन दान श्रेष्ठ है? रसों में कौन रस श्रेष्ठ है? रतियों में कौन रति श्रेष्ठ है? और तृष्णा-क्षय को क्यों सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है? . कोई भी इन प्रश्नों का उत्तर न दे सका। देवताओं ने सबसे पछने के बाद इंद्र से पूछा। वह भी इसका उत्तर न दे सका। तब इंद्र सहित सभी देवताओं ने जेतवन में जाकर भगवान के पास आ इन प्रश्नों को पूछा। भगवान ने कहाः धर्म के अनुभव में सब प्रश्नों के उत्तर हैं। फिर प्रश्न बहुत नहीं हैं, एक ही है। सोचने मात्र से समाधान नहीं होगा। जागो। जागने में समाधान है। धर्म के अनुभव में समाधान है। सब व्याधियों के लिए एक ही औषधि है—धर्म। तब उन्होंने यह सूत्र कहा। सब्बदानं धम्मदानं जिनाति सब्बं रसं धम्मरसो जिनाति। सब्बं रति धम्मरती जिनाति तण्हक्खयो सब्बदुक्खं जिनाति।। 167
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy