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________________ उठने में ही मनुष्यता की शुरुआत है निखारकर, पालिश करके रख देते हैं, तब दिखायी पड़ते हैं। बुद्धों को तो हीरे तब दिखायी पड़ जाते हैं जब वे पत्थर की तरह पड़े हैं। जब उनमें कोई चमक नहीं है। यह एक अनगढ़ हीरा था। यह चमक सकता था। यह पत्थर नहीं था। बुद्ध ने उसे भोजन कराया पहले, फिर उसे दो शब्द कहे, ज्यादा नहीं, और कथा कहती है कि उन दो शब्दों को, उन थोड़ी सी बातों को सुनकर ही वह स्रोतापत्ति-फल को उपलब्ध हो गया। स्रोतापत्ति-फल का अर्थ होता है, जो व्यक्ति बुद्ध की धारा में प्रविष्ट हो गया। स्रोतापन्न हो गया। जो बुद्ध की चेतना में प्रविष्ट हो गया। जो नदी में उतर गया। किनारे पर खड़ा था, उसने कहा, ठीक, अब मैं आता हूं, अब चलता हूं सागर की तरफ। स्रोतापत्ति। यह बुद्ध की साधना पद्धति में सबसे महत्वपूर्ण फल है। क्योंकि फिर शेष सब इसके बाद ही होगा। जो धारा में ही नहीं उतरा है वह तो सागर कब-कैसे पहुंचेगा? उसके तो पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। वहां ऐसे लोग थे जो वर्षों से बुद्ध को सुन रहे थे और अभी स्रोतापत्ति-फल को उपलब्ध नहीं हुए थे। अभी किनारे ही पर खड़े सोच-विचारकर रहे थे, दुविधा में पड़े थे-करें कि न करें? जंचती भी है बात कुछ, नहीं भी जंचती है बात कुछ। इसने कुछ सोच-विचार न किया। इसने तो बुद्ध के दो शब्द सुने और इसने कहा, बस काफी है। डूब गया। स्रोतापत्ति-फल का अर्थ होता है, डूब गया, डुबकी ले ली। बुद्धमय हो गया। भिक्षुओं ने भगवान से जिज्ञासा की कि बात क्या है ? ऐसा सम्मान आपने कभी . किसी को दिया नहीं। भोजन करवाने की आपने कभी किसी को चेष्टा नहीं की। अक्सर तो ऐसा होता है कि लोगों को आप समझाते हैं, उपवास करो। इस आदमी को उलटा भोजन करवाया। उपवास का सूत्र भी आगे आता है। तीसरा सूत्र, उसकी कथा सम्राट प्रसेनजित भोजन-भट्ट था। उसकी सारी आत्मा जैसे जिह्वा में थी। खाना, खाना और खाना। और तब स्वभावतः सोना, सोना और सोना। इतना भोजन कर लेता कि सदा बीमार रहता। इतना भोजन कर लेता कि सदा चिकित्सक उसके पीछे सेवा में लगे रहते। देह भी स्थूल हो गयी। देह की आभा और कांति भी खो गयी। एक मुर्दा लाश की तरह पड़ा रहता। इतना भोजन कर लेता! बुद्ध गांव में आए तो प्रसेनजित उन्हें सुनने गया। जाना पड़ा होगा। सारा गांव जा रहा है और गांव का राजा न जाए तो लोग क्या कहेंगे? लोग समझेंगे, यह अधार्मिक है। उन दिनों राजाओं को दिखाना पड़ता था कि वे धार्मिक हैं। नहीं तो उनकी प्रतिष्ठा चूकती थी, नुकसान होता था। अगर लोगों 21
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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