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________________ एस धम्मो सनंतनो |भ ग वान बुद्ध श्रावस्ती में ठहरे थे। नगरवासी उपासक सारिपत्र और मौदगल्लायन के पास धर्म-श्रवण करके उनकी प्रशंसा कर रहे थे। अपूर्व था रस उनकी वाणी में, अपूर्व था भगवान के उन दो शिष्यों का बोध; अपूर्व थी उनकी समाधि, और उनके वचन लोगों को जगाते थे-सोयों को जगाते थे, मुर्दो को जीवित करते थे। उनके पास बैठना अमृत में डुबकी लगाना था। एक भिक्षु जिसका नाम था लालूदाई, यह सब खड़ा हुआ बड़े क्रोध से सुन रहा था। उसे बड़ा बुरा लग रहा था। वह तो अपने से ज्यादा बुद्धिमान किसी को मानता ही नहीं था। भगवान के चरणों में ऐसे तो झुकता था, पर ऊपर ही ऊपर। भीतर तो वह भगवान को भी स्वयं से श्रेष्ठ नहीं मानता था। उसका अहंकार अति प्रज्वलित अहंकार था। और मौका मिलने पर वह प्रकारांतर से, परोक्ष रूप से भगवान की भी आलोचना-निंदा करने से चूकता नहीं था। कभी कहता, आज भगवान ने ठीक नहीं कहा; कभी कहता, भगवान को ऐसा नहीं कहना था; कभी कहता, भगवान होकर ऐसा नहीं कहना चाहिए; आदि-आदि। __ उस लालूदाई ने उपासकों को कहा, क्या व्यर्थ की बकवास लगा रखी है? क्या रखा है सारिपुत्र और मौदगल्लायन में? कंकड़-पत्थरों को हीरे समझ बैठे हो! परख करनी है तो पारखियों से पूछो। जवाहरात पहचनवाने हैं तो जौहरियों से पूछो। मुझसे पूछो। और प्रशंसा ही करनी है तो मेरे धर्मोपदेश की करो। उसकी दबंग आवाज, उसका जोर से ऐसा कहना, नगरवासी तो बड़े सकते में आ गए। सोचा उन्होंने, कि हो न हो लालूदाई एक बड़ा धर्मोपदेशक है। उन्होंने लालूदाई से धर्मोपदेश की प्रार्थना की। लेकिन लालूदाई बार-बार टाल जाते। कहते, ठीक समय पर, ठीक ऋतु में बोलूंगा। ज्ञानी हर कभी और हर किसी को उपदेश नहीं करता। प्रथम तो सुनने वाले में पात्रता चाहिए। अमृत हर पात्र में नहीं डाला जाता है। बात तो पते की थी। लोगों में प्रभाव बढ़ता गया। फिर तो वह यह भी कहने लगे कि ज्ञानी मौन रहता है। लिखा नहीं है शास्त्रों में कि जो बोलता है, वह जानता कहां है? जो चुप रहता है वही जानता है। परमज्ञानी क्या बोलते हैं! नगरवासियों में तो धाक बढ़ती गयी। और बड़ी उत्सुकता भी पैदा हो गयी। वे और-और प्रार्थना करने लगे। इस बीच लालूदाई अपना व्याख्यान तैयार करने में लगे थे। ___व्याख्यान शब्द-शब्द कंठस्थ हो गया तो एक दिन धर्मासन पर आसीन हुए। पूरा गांव सुनने आया। तीन बार बोलने की चेष्टा की, पर अटक-अटक गए। बस संबोधन ही निकलता-उपासको!...और वाणी अटक जाती। खांसत-खखारते, लेकिन कुछ न आता। पसीना-पसीना हो गए। चौथी बार चेष्टा की तो संबोधन भी न निकला। सब सूझ-बूझ खो गयी। याद किया, कुछ याद न आया। हाथ-पैर 262
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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