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________________ आत्म-स्वीकार से तत्क्षण क्रांति जीवन के विपरीत जाकर तुम उखड़ ही जाओगे; ज्यादा देर चल नहीं सकता। ठीक है, बुद्ध के प्रभाव में हजारों लोग संन्यस्त हो गए, घर-द्वार छोड़ दिए। संन्यास का मामला था। अगर किसी और कारण घर-द्वार छोड़ते तो लोग भी निंदा करते; अब धर्म का मामला था, लोग भी निंदा न कर सके। पत्नियां आंसू पीकर रह गयीं; रो भी न सकी, रोने की भी स्वतंत्रता न थी। यह पति मर जाता तो रो लेतीं। यह पति चोर हो जाता, बेईमान हो जाता, भाग जाता, भगोड़ा हो जाता, तो रो लेतीं। यह भी उपाय न बचा। यह संन्यस्त हो गया। चूंट पीकर रह गयीं। बच्चों की आंखों में आंसू सूखकर रह गए। हजारों घर-परिवार बर्बाद हुए। जहां रौनक थी, बेरौनकी आ गयी। जहां घर सजे थे, वहां खंडहर हो गए। यह ज्यादा दिन चल नहीं सकता था। मैं पक्ष में नहीं हूं। मैं कहता हूं, मेरे कारण अगर तुम्हारे घर में थोड़ी रौनक आ जाए, तो ही बात ठीक है; घट जाए रौनक तो मैं तुम्हारा दुश्मन साबित हुआ। जाओ! कभी-कभी आ गए! और तुम तब पाओगे कि तुम्हारी पत्नी और बच्चे मेरे विपरीत न होंगे। अगर तुम यहां से प्रेम ले जाते हो, मुझमें डूबकर जाते हो और ज्यादा प्रेमपूर्ण होकर लौटते हो, तो वे तुम्हारे विपरीत न होंगे। बुद्ध और महावीर के प्रभाव के कारण संन्यास के प्रति कितना ही ऊपरी सम्मान हो, भीतर बड़ी गहरी चोट पड़ गयी भारत में। संन्यास का नाम सुनते ही पत्नी घबड़ा जाती है, मां घबड़ा जाती है, बाप घबड़ा जाता है। मेरे संन्यास के नाम से भी घबड़ा जाता है, क्योंकि उसको तो खयाल पुराना ही है। संन्यास! किसी और का लड़का ले, तो पैर छू आता है जाकर। अपना लड़का! यह तो बर्बादी हो जाएगी। संन्यास शब्द विकृत हो गया। उस शब्द में जहर घुल गया। मेरे पास आ जाती हैं पत्नियां। वे कहती हैं, आप यह क्या कर रहे हैं, हमारे पति को संन्यास दे रहे हैं। उनका कसूर नहीं। ढाई हजार साल हो गए बुद्ध-महावीर को, फिर हजार साल हो गए शंकराचार्य को, उन्होंने जो चोट पहुंचायी, वह अभी तक भी घाव हरा है, वह बुझा नहीं। पत्नी घबड़ाती है कि आप यह क्या कर रहे हैं, मेरे पति को संन्यास दे रहे हैं। ऐसा पूना में एक युवक ने संन्यास ले लिया। उसकी मां, उसके बाप आए। बाप तो किसी तरह बैठे रहे, आंख से आंसू बहते रहे, मां तो लोटने लगी। मैंने उससे कहा भी कि तू सुन भी तो! यह संन्यास कोई ऐसा संन्यास नहीं जैसा तू सोचती है। वह कहती है, मुझे सुनना ही नहीं। आप मुझसे कुछ कहिए ही मत। कहीं ऐसा न हो कि आप मुझे राजी कर लें, मुझे सुनना ही नहीं। बस आप माला वापस ले लो। मेरे लड़के को मुझे वापस दे दो। मैं समझता हूं। इसके रोने में, इसके जमीन पर लोटने में बुद्ध और महावीर का हाथ है, शंकराचार्य का हाथ है। मैंने उसके लड़के का संन्यास वापस ले लिया। मैंने कहा, तू फिकर मत कर। मगर इसमें कसूर उसका नहीं है, इसमें बड़े-बड़े हाथ हैं। 263
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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