SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एस धम्मो सनंतनो धूल लपेटने से और न उकडूं बैठने से हो सकती है। ' ‘जिसके संदेह समाप्त नहीं हुए हैं... ' बुद्ध को नकार से बड़ा लगाव है। अब क्या अड़चन थी, वे कह देते कि जिसको श्रद्धा उत्पन्न हुई है। मगर वे न कहेंगे। वह शब्द उन्हें रास नहीं आता । परिस्थितियां भी नहीं थीं । श्रद्धा जैसे बहुमूल्य शब्द को बुद्ध ज्यादा उपयोग नहीं कर पाते। पर जो कहते हैं वह वही है। तुम इसे ध्यान रखना । 'जिसके संदेह समाप्त नहीं हुए हैं... '' उनको उलटी तरफ से यात्रा करनी पड़ती है, कान दूसरी तरफ से घूमकर पकड़ना पड़ता है। श्रद्धा सीधा शब्द है, लेकिन वे कहते हैं, जिसके संदेह नहीं समाप्त हुए हैं। वे कहते हैं, संदेह समाप्त होने चाहिए। संदेह की जो शून्य स्थिति . है, जहां संदेह नहीं है, वही श्रद्धा की स्थिति है। लेकिन बुद्ध उसके संबंध में कुछ कहते नहीं । वे नहीं से चलते हैं । वे हर जगह नहीं से ही व्याख्या और परिभाषा करते हैं। नेति नेति उनका शास्त्र है। मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर बैठा था। एक नया युवक एक बड़ी पोथी लेकर आ गया। मुल्ला को बड़ी बेचैनी होने लगी। उस युवक ने कहा कि मैंने एक उपन्यास लिखा है और आप बुजुर्ग हैं; आप कविता भी करते हैं, कहानियां भी लिखते हैं, मैं बड़ा धन्यभागी होऊंगा अगर आप इसके लिए शीर्षक चुन दें। होंगे कोई दो हजार पन्ने ! मुल्ला ने गौर से पोथी की तरफ देखा और उसने कहा कि ठीक, इसमें कहीं ढोल का जिक्र है ? उसने कहा कि नहीं। वह युवक चौंका कि ढोल के जिक्र के पूछने की जरूरत क्या ! मुल्ला ने पूछा, इसमें कहीं नगाड़े का जिक्र है ? उसने कहा कि नहीं, बिलकुल नहीं। तो उसने कहा, बस, शीर्षक चुन दिया, न ढोल न नगाड़ा। उठा अपनी पोथी और ले जा ! मैं मुल्ला से कहा कि मुल्ला, तुम मुसलमान हो कि बुद्धिस्ट ? बौद्ध मालूम होते हो बिलकुल । यह तुमने खूब तरकीब निकाली है इसका शीर्षक चुनने की—न ढोल न नगाड़ा ! गलत भी कोई नहीं कह सकता, क्योंकि दोनों का जिक्र नहीं है। बुद्ध श्रद्धा की बात नहीं करते हैं। कहते हैं, जहां संदेह न हो। जिसके संदेह समाप्त हो गए हैं। नहीं से चलते हैं। लेकिन जिनके जीवन में तर्क है, विचार है, उनको यह बात जंचेगी, उनको यह बात समझ में आएगी। जिनके जीवन में भाव है, श्रद्धा है, उनको थोड़ा अजीब सा लगेगा। यह तो ऐसे हुआ जैसे प्रकाश की परिभाषा के लिए अंधेरे को बीच में लाना पड़े। लिया जा सकता है, अड़चन नहीं है। हम कह सकते हैं, प्रकाश यानी अंधेरे का न होना। जहां बिलकुल अंधेरा नहीं है। बुद्ध कहते हैं, वही, जहां बिलकुल अंधेरा नहीं है। मगर वे प्रकाश शब्द को नहीं लेते। उनके संकोच और भय का कारण भी स्पष्ट है। प्रकाश के नाम पर बहुत उपद्रव मच चुका है। श्रद्धा के नाम पर बहुत अंधश्रद्धा फैल चुकी है। श्रद्धा के नाम पर श्रद्धा 228
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy