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________________ एस धम्मो सनंतनो इतने मत उत्तप्त बनो । मेरे प्रति अन्याय हुआ है ज्ञात हुआ मुझको जिस क्षण करने लगा अग्नि- आनन हो गुरुगर्जन, गुरुतर तर्जन शीश हिलाकर दुनिया बोली पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह इतने मत उत्तप्त बनो । यह सब होता ही रहा है। लोग लड़ते ही रहे, झगड़ते ही रहे, गालियों का आदान-प्रदान करते ही रहे। लोग पागल हैं, और करेंगे भी क्या ? विक्षिप्त है यह पृथ्वी । कुछ वैज्ञानिकों को ऐसा संदेह है - वह संदेह रोज-रोज बढ़ता जाता है। रूस के एक बहुत बड़े वैज्ञानिक बेरिलोवस्की की ऐसी परिकल्पना है कि यह पृथ्वी इस पूरे अस्तित्व का पागलखाना है। तो जहां-जहां आत्माएं गड़बड़ा जाती हैं, उनको यहां भेज देते हैं। इस बात में थोड़ी सचाई मालूम होती है। कल्पना बड़े दूर की है, मगर सचाई मालूम होती है। जैसे हम भी तो पागलखाना रखते हैं गांव में कोई पागल हो गया उसे पागलखाने भेज देते हैं। इस बात की संभावना है। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, कम से कम पचास हजार पृथ्वियां हैं, जहां जीवन है— होना चाहिए। तो इतने बड़े विराट जीवन के विस्तार में एकाध तो पृथ्वी होगी जहां पागलखाना, कारागृह... । अगर कहीं भी होगी, तो यह पृथ्वी बिलकुल ठीक मालूम पड़ती है, जंचती है। यहां लोग पागल हैं। परेशान मत होओ। एक बड़ा पागलखाना है, जिसमें तुम हो । जरा जागो। लोगों के पागलपन के कारण तुम पागलपन मत करो। तुम तो कम से कम पागलपन छोड़ो। बुद्ध यही कह रहे हैं, अगर दूसरे तुम्हें गालियां देते हैं और तुम्हें दुख होता है, तो कम से कम तुम तो गालियां देना बंद करो। दूसरे तुम्हें सताते हैं, तुम्हें दुख होता है, तो तुम तो कम से कम दूसरों को सताना बंद करो। 1 धीरे-धीरे एक अनिर्वचनीय, निर्विकार मौन को जन्म देना है। मौन हुआ व्यक्ति ही विक्षिप्तता के बाहर है। जो शांत हुआ, वही पागलपन के बाहर गया। जो अशांत है, वह तो पागलपन की सीमा के भीतर है। 182 बस यही सत्य है, यही सत्य है सिर्फ दोस्त ! हम सभी लगे हैं अपने-अपने परिचय में बस उसको ही हम कहने लगते हैं अपना जो भी माध्यम बन जाता इस छल अभिनय में
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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