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________________ आज बनकर जी! के आधार पर कोई मंदिर बना? कहीं नहीं के आधार से पूजा आविर्भूत हुई? नहीं के आसपास कोई कभी नाच पाया है ? नहीं को बीच में रखकर तुम अचेना-पूजा के थाल सजा पाओगे? नहीं की प्रतिमा बनाकर, नेति-नेति की प्रतिमा बनाकर तुम कहां पूजा करोगे, कहां सिर झुकाओगे? न नहीं के कोई पैर हैं, न नहीं का कोई हृदय है। ___ इसलिए भक्त कहते हैं, नहीं से काम न चलेगा। और उनको एक डर लगता है। वह डर यह है कि कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी नहीं उपेक्षा बन जाए। और ऐसा हुआ है। अगर तुम जैन-मुनि को देखो, तो लगता है कि उसके जीवन की साधना उपेक्षा की हो गयी। उसमें रसधार नहीं बहती। बस, उसकी चेष्टा इतनी ही है कि किसी को मेरे कारण दुख न हो। बात समाप्त हो गयी। मैं दूसरे के रास्ते से हट जाऊं। फर्क तुम समझो। जैन-मुनि को तुम किसी मरीज का पैर दाबते हुए नहीं पा सकते। हां, जैन-मुनि को तुम किसी की खोपड़ी पर लट्ठ मारते नहीं पाओगे, यह सच है। ____ लेकिन ईसाई किसी के पैर दाबते मिलेगा। किसी रुग्ण की सेवा करता मिलेगा। किसी भूखे के लिए रोटी का इंतजाम करता मिलेगा। किसी प्यासे के लिए कुआं खोदता मिलेगा। जैन-मुनि को तुम कुआं खोदता न पाओगे। किसी के रास्ते में कांटे नहीं बिछाएगा–यह बात सच है। मगेर सारा जीवन बस, दूसरे के रास्ते में कांटे न बिछाने पर लगा देना, नहीं की पूजा हो गयी। कहीं भूल हो गयी। शायद बुद्ध और महावीर के वचन को वह ठीक से समझ नहीं पाया, व्याख्या में चूक हो गयी। बुद्ध और महावीर जब कहते हैं, दूसरे को दुख न दो, तो वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम्हारा सारा जीवन इस दुख न देने के आसपास, इर्द-गिर्द ही निर्मित हो जाए। वे इतना ही कह रहे हैं कि अगर तुमने दूसरे को दुख न दिया, तो तुम पाओगे कि जीवन में चारों तरफ फूल खिलने शुरू हुए। अगर फूल न खिलते हों, तो समझना कि तुम्हारी अहिंसा वास्तविक अहिंसा नहीं है, उपेक्षा है। अगर जीवन में आनंद की रसधार न बहे, तो समझना कि तुमने सिर्फ जीवन से अपने को हटा लिया है, रूपांतरित नहीं किया। इन दोनों बातों में फर्क है। ___ तुम किसी आदमी को दुख न दो। लेकिन इसका कारण यह भी हो सकता है कि तुम उसे इस योग्य भी नहीं मानते कि दुख दो, और यह भी हो सकता है कि तुम उसे इतना योग्य मानते हो कि कैसे दुख दो। किसी ने तुम्हें गाली दी। तुमने कहावत सुनी है: हाथी निकल जाता है, कुत्ते भौंकते रहते हैं। किसी ने तुम्हें गाली दी, तुम हाथी की तरह निकल गए। तुमने उसे कुत्ता समझा-भौंकते रहने दो। यह धर्म न हुआ, अधर्म हो गया। इससे तो बेहतर था तुम गाली दे देते। कम से कम आदमी तो मानते, कुत्ता तो न मानते। नीत्से ने कहा है, यह अपमानजनक है। तुम कम से कम मेरे चांटे का उत्तर चांटे 167
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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