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________________ एस धम्मो सनंतनो तुम यह मानो कैसे! क्योंकि तुम सदा यह कहते हो, दुखी मैं होना नहीं चाहता। जब तुम दुखी होना नहीं चाहते, तो तुम अपने कारण क्यों दुखी होओगे ? स्वभावतः, तुम्हारा तर्क कहता है, कोई और दुखी कर रहा है। कोई और कांटे बो रहा है, कोई और जीवन में शूल बो रहा है। मैं तो फूल ही मांगता हूं। मैंने तो कभी फूल के अतिरिक्त कुछ चाहा नहीं। इसलिए अगर शूल मिल रहे हैं, तो कोई और जिम्मेवार है। लेकिन किसको पड़ी है कि तुम्हारे लिए कांटे बोए ? किसको फुरसत है ? कौन तुम्हें इतना मूल्य देता है कि तुम्हारे रास्ते पर कांटे बोने आए ? दूसरे लोग भी अपने जीवन में फूल बोने की बातों में लगे हैं । उनको भी फुरसत नहीं है, जैसे तुमको फुरसत नहीं है। लेकिन वे भी दुखी हो रहे हैं, तुम भी दुखी हो रहे हो । कुछ ऐसा लगता है, तुम आंख पर पट्टी बांधकर बीज बोए चले जाते हो। बुद्धों का अनुभव है कि दुख है, तो कारण तुम हो। इसमें कोई अपवाद का उपाय नहीं है। तुमने ही बोया होगा। देर हो गयी होगी बीज बोए, फसल आने में समय लगा होगा, तुम शायद भूल भी गए होओ कब बोए थे ये कड़वे बीज । शायद तुम्हें, तुम्हारे तर्क में संबंध भी न रह गया हो बीजों का और फलों का। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । दुख तुम्हारे ही बोए हुए बीजों का फल 1 मगर तुम कहते हो, दुखी मैं होना नहीं चाहता। यह बात भी सच नहीं है। हजारों लोगों से मैं भी संबंधित हुआ हूं, ऐसे आदमी को मैं अभी खोज नहीं पाया जो दुखी न होना चाहता हो। कहते सभी हैं, सुख चाहते हैं। सुख चाहते ही आते हैं। लेकिन जब मैं उनको गौर से देखता हूं, तो उनको दुख को इतना पकड़े देखता हूं कि यह भरोसा नहीं आता कि इनका सुख चाहने का मतलब क्या है ? फिर यह भी गौर से देखने पर पता चलता है कि जिसको ये सुख कहते हैं, वह दुख का ही नाम है। इनकी समझ में कहीं भूल है । समझो । एक आदमी सम्मान चाहता है। अब सम्मान तो सुख है। लेकिन जिसने सम्मान चाहा, अपमान का क्या करेगा ? सम्मान के चाहने में ही अपमान का दुख पैदा होता है। इधर तुमने सम्मान मांगा, उधर अपमान की संभावना बनी। तुम सम्मान चाहते हो। जितना तुम सम्मान चाहोगे, उतना ही दूसरे तुम्हारा अपमान करना चाहेंगे। तुम अपने को बड़ा करके दिखाना चाहते हो, दूसरे तुम्हें छोटा करके दिखाना चाहेंगे। क्योंकि तुम अगर बड़े हो, तो दूसरे छोटे हो जाते हैं। वे भी सम्मान चाहते हैं। तुम अगर छोटे हो, तो ही वे बड़े हो सकते हैं। इसलिए संघर्ष चलता है कि मैं बड़ा हूं, तुम छोटे हो। तुम भी यही कर रहे हो । दूसरे भी सम्मान चाहते हैं, तुम भी सम्मान चाहते हो। उनको भी अपमान मिलता है, तुम्हें भी अपमान मिलता है। थोड़ा सोचो, जमीन पर कोई चार अरब आदमी हैं। एक-एक आदमी चार अरब आदमियों के खिलाफ लड़ रहा है। एक-एक आदमी सिद्ध करने की कोशिश कर रहा है, मैं बड़ा हूं! और चार अरब आदमी उसके खिलाफ सिद्ध करने की कोशिश 138
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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