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________________ लाभ-पथ नहीं, निर्वाण-पथ वहां दूसरे भी जा सकते हैं। ऐसी जगह खोजनी तो मुश्किल है। तुम आदमी हो, तुम पहुंच गए, तो दूसरा आदमी भी पहुंच सकता है। 1 रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहां कोई न हो ऐसी जगह बाहर तो नहीं खोजी जा सकती, बस भीतर खोजी जा सकती है। हमसुखन कोई न हो और हमजबां कोई न हो न तो कोई बातचीत करने को हो, न कोई अपनी जबान समझता हो। कहां जाओगे ? बाहर जाने का उपाय नहीं । बस, भीतर एकांत खोजा जा सकता है। मूढ़ अगर एकांत भी खोजता है तो बाहर खोजता है। समझदार अगर एकांत खोजता है तो भीतर खोजता है। बाहर तो संसार है। जहां भी जाओ, कहीं भी जाओ, चांद-तारों पर चले जाओ, संसार ही होगा। तुम जहां होओगे, वहां संसार होगा । भीतर चलो ! क्योंकि जैसे-जैसे तुम भीतर जाओगे, तुम मिटने लगते हो। इसलिए तो लोग भीतर जाने में डरते हैं। ध्यान मौत है। मौन मौत है। वहां सीमाएं बिखरने लगती हैं। जैसे-जैसे तुम भीतर जाते हो, जहां भाषा नहीं पहुंचती - हमसुखन कोई नहीं हमजबां कोई नहीं । जैसे ही भाषा नहीं, वहां खुद को भी बोल नहीं सकते कुछ। खुद से भी बोल नहीं सकते कुछ। जहां सब चुप है, जहां चुप्पी का संसार है, वहीं तुम्हारा एकांत है । मूढ़ एकांत खोजे तो जंगल जाता है; समझदार एकांत खोजे तो स्वयं में जाता है । मूढ़ अगर त्याग करे तो वस्तुओं का त्याग करता है; समझदार अगर त्याग करे तो परिग्रह का त्याग करता है, वस्तुओं का नहीं; पकड़ का त्याग करता है। मूढ़ अगर गृहस्थी छोड़े, घर छोड़े, तो मिट्टी का घर छोड़ता है। समझदार अगर घर छोड़ता है तो घर बनाने की आकांक्षा छोड़ता है। असुरक्षा को स्वीकार करता है, सुरक्षा के उपद्रव छोड़ देता है। 'लाभ का रास्ता दूसरा है और निर्वाण का रास्ता दूसरा है।' यह वचन बड़ा अदभुत है। बुद्ध कहते हैं, 'लाभ का रास्ता दूसरा है, निर्वाण का रास्ता दूसरा है। ' मूढ़ हमेशा लाभ का ही हिसाब रखता है। निर्वाण की दिशा में भी जाता है तो भी । मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं, ध्यान करेंगे तो लाभ क्या होगा? कौन कहे इनसे ? लाभ ही तो ध्यान नहीं होने दे रहा है। लाभ ने ही तो मारा। लाभ ने ही तो पागल बनाया है, विक्षिप्त किया है। और अब यहां भी आते हो तो पूछते हो कि ध्यान करेंगे तो लाभ क्या होगा ? संन्यास लेंगे तो लाभ क्या होगा ? लाभ की दृष्टि ही तो रोग है; उसे यहां भी ले आते हो? तुम बिना लाभ के कुछ कर ही नहीं सकते! तुम यह पूछते हो कि परमात्मा को क्यों खोजें? लाभ क्या होगा ? धन की भाषा पीछा नहीं छोड़ती। लोभ की भाषा पीछा नहीं छोड़ती। ! 169
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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