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________________ एस धम्मो सनंतनो अब तुम जो चाहो करो—पूजा चाहो पूजा, न पूजा करना हो न पूजा, फोड़ना हो फोड़ो, तोड़ना हो तोड़ो। बुद्ध की प्रतिमा तुम्हें रोक न पाएगी। देखो जरा मजा, श्वेतांबर जैन हैं। महावीर जिंदगी के परम सत्य को नग्न रहकर पाए। उनको बेचैनी है-श्वेतांबरों को उनके नग्न होने से। और जिंदा महावीर को तो न पहना पाए कपड़े, मरे महावीर को पहना देते हैं। जिंदा महावीर को तो आभूषण न पहना पाए, मरे महावीर को पहना देते हैं। जिंदा महावीर ने तो सब छोड़ दिया, और मरे की तुम जो चाहो, तुम्हारे हाथ में है, मजबूरी है, जो चाहो करो। बुद्ध ने कहा था, मेरी मूर्तियां मत बनाना। लेकिन जितनी मूर्तियां बुद्ध की हैं किसी और की नहीं हैं। अब तुम जो चाहो करो, तुम्हारी जैसी मर्जी। एक-एक मंदिर में दस-दस हजार मूर्तियां हैं बुद्ध की। पुजारी भी कम पड़े जा रहे हैं। दस हजार मूर्तियां हैं। पूजा कभी की बंद हो चुकी, उपचार रह गया है। तीसरा प्रश्नः कल कहा गया कि कोई किसी को सुख या दुख नहीं दे सकता है, यदि दूसरा लेने को राजी न हो। और यह भी कहा गया कि यदि कोई स्वयं आनंद को उपलब्ध हो, तो उस आनंद की वर्षा अनायास दूसरों पर हो जाती है। आप हमें स्वार्थी होने का लाभ तो नहीं बता रहे हैं? |ब ड़ी देर हो गई है, अगर तुम अब तकं न समझे। स्वार्थी होना ही सिखा रहा हूं। - लेकिन जल्दी मत कर लेना समझने की, जो मैंने कहा। तुम जिसे स्वार्थ कहते हो, उसे तो मैं स्वार्थ नहीं कहता। मैं जिसे स्वार्थ कहता हूं, उसकी तुम्हें खबर भी नहीं है। तुम जिसे परार्थ कहते हो, उसे तो मैं परार्थ नहीं कहता। मैं जिसे परार्थ कहता हूं, उसकी तुम्हें कोई भी खबर नहीं है। इसलिए तुम्हारे भीतर का पूरा इंतजाम बदलना पड़ेगा। भाव ही नहीं बदलने पड़ेंगे, तुम्हारी भाषा भी बदलनी पड़ेगी। क्योंकि तुम्हारे भावों ने तुम्हारी भाषा को भी दूषित कर दिया है। __स्वार्थ शब्द बड़ा प्यारा है, लेकिन खराब हो गया है। उसका अर्थ होता है : स्वयं के हित में, स्वयं के अर्थ में। स्वार्थ को आत्मार्थ कहो। खोजी आत्मार्थी है। आत्मार्थ कहते ही तुम्हें अड़चन नहीं होती; बिलकुल ठीक, प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं कि बात बिलकुल ठीक है। स्वार्थ कहते ही अड़चन हो जाती है। स्व का अर्थ आत्मा है। लेकिन तुमने अहंकार को स्व समझा है, इसलिए अड़चन हो रही है। अब यह 140
SR No.002380
Book TitleDhammapada 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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