SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ताओ उपनिषद भाग ६ इसलिए प्रेम तुम्हारे हाथों का संगीत नहीं है; तुमसे विराट अपनी अंगुलियां तुम्हारे ऊपर रखता है। हां, तुम चाहो तो बजने से इनकार कर सकते हो; तुम चाहो तो अकड़ में रह सकते हो; तुम इतने अकड़ सकते हो कि अनंत की अंगुलियां तुम्हारे भीतर कोई स्वर पैदा न कर पाएं। इसलिए तो हम कहते हैं कि प्रेम पागलपन है, अंधापन है; क्योंकि पता नहीं, कहां से आता है, कहां ले जाता है। अनजान की पुकार है। अचानक तुम्हें लगता है, एक क्षण में कोई तर्कयुक्त गणित नहीं बिठाना पड़ता कि इस व्यक्ति को मैं प्रेम करूं, कुछ सोचना नहीं पड़ता कि इस व्यक्ति में क्या-क्या प्रेम योग्य है, कुछ हिसाब नहीं लगाना पड़ता-अचानक एक क्षण में, समय का व्यवधान भी नहीं पड़ता, तुम पाते हो कि तुम प्रेम में हो, किसी व्यक्ति ने तुम्हारे हृदय को बजा दिया, किसी ने सोए तार छेड़ दिए। वह प्रेमी हो सकता है, वह गुरु हो सकता है, वह मित्र हो सकता है। लेकिन प्रेम का स्वर एक है। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या नाता-रिश्ता बनाते हो; लेकिन अचानक घटना घटती है। यह मूल्यवान है समझ लेना। क्योंकि जिसे तुम घटाते हो, वह तुमसे बड़ा न होगा; जिसे तुम कर सकते हो, वह तुमसे छोटा होगा; जो तुमसे किया जाएगा, वह तुम्हारे जीवन के पार ले जाने वाला नहीं हो सकता। इसलिए तो बहुत बार मुझे ऐसा लगता है कि ध्यान से भी गहन है प्रेम; क्योंकि ध्यान तो तुम शुरू करते हो, कुछ तुम करते हो। ऐसे भी ध्यान हैं जिन्हें तुम शुरू नहीं करते, अगर तुम्हारी समझ हो तो तुम उन्हें पहचान लोगे। लेकिन वैसे ध्यान तुम प्रेम के बिना न पहचान पाओगे। एक बार तुमने अपने को बह जाने दिया अनंत के हाथों में; एक बार तुमने सिर्फ रोका नहीं; जहां ले जाना चाहती थीं हवाएं, तुम्हें ले गईं; जिस तरफ उड़ाना चाहती थीं, तुम उड़ गए; तुमने यह न कहा कि मुझे तो पूरब जाना है और यह तो पश्चिम की यात्रा हो रही है; तुमने यह न कहा कि मेरी तो ये अपेक्षाएं हैं, ये शर्ते हैं; तुमने न कोई शर्त रखी, न कोई बाधा खड़ी की, तुम चुपचाप समर्पित बह गए; अगर एक बार तुमने प्रेम में बहना जान लिया तो तुम्हें ध्यान की कुंजी भी हाथ लग जाएगी। क्योंकि वह भी करने की बात नहीं है, वह भी बह जाने की बात है। कर-करके तुम क्या करोगे? तुम्हीं तो करोगे। तुम्हारे अज्ञान से ही तो तुम्हारा कृत्य उठेगा। तुम्हारे रोग से ही . तो उठेगा तुम्हारा ध्यान। तुम्हारा ध्यान भी रुग्ण होगा। तुम्हारा ध्यान भी अंधकारपूर्ण होगा। तुमसे ऊपर से कुछ आए तो ही प्रकाश हो सकता है। और तुमसे ऊपर से कुछ आए, इसकी तैयारी कैसे होगी? ध्यान दूर है, अगर प्रेम पास नहीं। अगर प्रेम पास है, तो ध्यान भी बहुत पास है। इसलिए लाओत्से, जीसस, कृष्ण प्रेम पर बड़ी प्रगाढ़ता से जोर देते हैं। वह जोर महत्वपूर्ण है। क्या घटता है प्रेम के क्षण में? दो व्यक्ति इतने करीब आ जाते हैं कि उन्हें ऐसा नहीं लगता कि हम दो हैं; अद्वैत घटता है प्रेम के क्षण में। ऐसा भी नहीं लगता कि हम एक हो गए, और ऐसा भी नहीं लगता कि हम दो हैं। कबीर जो कहते हैं, कि एक कहूं तो है नहीं। कहना ठीक नहीं है; गलत होगा; क्योंकि एक है नहीं। दो कहूं तो गारी। और दो कह दूं तो गाली हो जाती है। प्रेम के क्षण में तुम्हें पहली दफा पता चलता है-दो भी हो, एक भी हो। एक कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि दो हो; दो कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रेम का स्वर ऐसा बज रहा है कि जैसे एक ही तरंग के दो छोर हों। ये दोनों हृदयों के वाद्य अलग-अलग नहीं बज रहे हैं; एक आर्केस्ट्रा है, एक साथ बज रहे हैं। उनमें एक लयबद्धता है। एक के बीच दो का होना अनुभव होता है; दो के बीच एक का होना अनुभव होता है। प्रेम पहेली हो जाती है और परम पहेली की पहली खबर मिलती है। और जब तुम एक बार किसी को करीब आने देते हो, इतने करीब कि खतरा हो सकता है...।
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy