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________________ मार ताओ का समर्पण लेकिन संत के मन में अगर यह आकांक्षा हो कि मैं सच्चा हूं, अहिंसक हूं, व्रती हूं, त्यागी हूं, या और कुछ हूं, इसको प्रमाणित करूं...। एक गांव में मैं गया था। एक साधु वहां ठहरे थे। कोई उन्हें मुझसे मिलाने लिवा लाया था। जो मिलाने लाए थे, उनके शिष्य थे। उन्होंने कहा कि ये बड़े त्यागी हैं, महा तपस्वी हैं। इन्होंने अब तक इतने-इतने हजार उपवास किए हैं। मैंने उन साधु से पूछा कि ये कहते हैं कि इतने हजार उपवास किए हैं! तो उन्होंने कहा, हां। और अब तो संख्या और भी बढ़ गई। ये तो पुरानी, पुरानी संख्या बता रहे हैं। मैंने उनसे पूछा, आपने हिसाब रखा है? उन्होंने कहा कि मैं बिलकुल डायरी रखता हूं। यह डायरी किसको बताई जाने वाली है? ये परमात्मा के पास डायरी ले जाएंगे? यह डायरी किसको बताई जाने वाली है? न, यह लोगों को बताई जाती है कि कितने उपवास किए हैं। और जो बताने को उत्सुक है, वह दो के चार उपवास भी डायरी में लिख सकता है। जो बताने को उत्सुक है, उसका कोई भरोसा नहीं। क्योंकि उपवास असली चीज नहीं है, संख्या असली चीज है। उपवास का मूल्य ही इतना है कि कितनी संख्या बढ़ती जाती है। यह जो औचित्य है त्याग का, यह बताता है कि आदमी अभी भी बाजार में है। उसकी भाषा, सोचने के ढंग अभी दुनियादारी के हैं। अभी उसे संन्यास की कोई किरण भी नहीं मिली। अभी उसे त्याग का कोई आनंद नहीं मिला। अभी उसे त्याग से आनंद मिलता है, त्याग का आनंद नहीं मिला। इस फर्क को ठीक से समझ लें। उसे त्याग से आनंद मिलता है। क्योंकि त्याग को लोग सम्मान देते हैं, आदर देते हैं, पैर छूते हैं, जयजयकार करते हैं, रथ-यात्रा निकालते हैं, बैंड-बाजे बजाते हैं। त्याग के द्वारा, त्याग से। त्याग अभी साधन है। लेकिन आनंद अभी सम्मान का है। अभी उसे त्याग का आनंद नहीं मिला। जिस दिन उसे त्याग का आनंद मिल जाएगा, उस दिन वह समझेगा कि सम्मान का त्याग बड़े से बड़ा त्याग है। तो उसने जो भी अभी छोड़ा, खाना वगैरह, कपड़े-लत्ते, मकान वगैरह, वह ना-कुछ हैं। जब इनको छोड़ने से इतना आनंद मिलता है, तो जिस दिन कोई सारे अहंकार को ही छोड़ देता है, सम्मान के भाव को ही छोड़ देता है, तब उसे परम आनंद मिलता है। लेकिन उसका उसे अभी कोई पता नहीं है। जो आज बैंड-बाजा बजाते हैं उसके चारों तरफ, कल अगर बैंड-बाजा बजाना बंद कर दें तो उसके उपवास भी बंद हो जाएंगे। कारण ही खो जाता है। रामकृष्ण के पास एक आदमी आता था। वह हर वर्ष, जब नवदुर्गा होती, तो बड़ा उत्सव मनाता और बड़े बकरे कटते। फिर अचानक उत्सव बंद हो गए, और बकरे कटने बंद हो गए। रामकृष्ण ने उससे पूछा कि बहुत दिन से देखते हैं कि वर्ष, दो वर्ष बीत गए, उत्सव का क्या हुआ? धर्म का क्या? पूजा का क्या? अब बकरे वगैरह नहीं कटते? उस आदमी ने कहा, दांत ही न रहे, दांत ही गिर गए। रामकृष्ण सोचते थे कि उत्सव हो रहा है धर्म का। वे बड़े चौंके। रामकृष्ण ने कहा, दांत से इसका क्या लेना-देना? उस आदमी ने कहा, दांत ही न रहे तो उत्सव कैसा? बकरे कैसे कटने? खाने-पीने का आनंद ही चला गया। धर्म तो एक बहाना था, एक आड़ थी। तो अगर मूल कारण गिर जाए...साधु को जिस दिन आप सम्मान न दें, उस दिन आपको पता चलेगा, कितने साधु आपके पास हैं। जब तक साधु को सम्मान मिलता है, तब तक तय करना मुश्किल है। क्योंकि सौ में से निन्यानबे लोग तो सम्मान के कारण ही साधु होंगे। और एक बड़े मजे की बात है कि साधु होने के लिए बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है; किसी गुण की जरूरत नहीं है; किसी टैलेंट की, किसी जीनियस की, किसी मेधा की कोई जरूरत नहीं है। इस दुनिया में सब तरफ सम्मान महंगा है, साधु होकर बहुत सस्ता है। आप अपने साधुओं को जरा गौर करके देखें, इनको किस दिशा में आप लगा देंगे तो ये कारगर हो सकते हैं? 91
SR No.002373
Book TitleTao Upnishad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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