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________________ 59 अ स्तित्व में जो जितना ही सूक्ष्म है, उतना ही अदृश्य है; जितना स्थूल है, उतना दृश्य है। जो दिखाई पड़ता है, वह उथला है; जो नहीं दिखाई पड़ता, वही गहरा है। इसलिए जो लोग परमात्मा को देखने निकल पड़ते हैं, वे बुनियादी भूल में पड़ जाते हैं। ईश्वर दर्शन शब्द ही असंगत है। जो दिखाई पड़ सकता है, वह ईश्वर नहीं होगा। जो दिखाई पड़ जाए, वह दिखाई पड़ जाने के कारण ही ईश्वर नहीं रह जाएगा। आंख जिसे देख सकती है, वह पदार्थ है। हाथ जिसे छू सकते हैं, वह पदार्थ है। कान जिसे सुन सकते वह पदार्थ है । मन जिसे जान सकता है, वह पदार्थ है। असल में, जिसे भी हम जान लेते हैं, उसकी सीमा, आकार और रूप बंध जाता है। हमारे सारे जानने के पार भी जो सदा शेष रह जाता है; हम जिसे स्पर्श करना भी चाहें, तो भी नहीं कर पाते; हम जिसे देखना भी चाहें, तो भी देख नहीं पाते; और फिर भी हम नहीं कह सकते कि वह नहीं है, उसका नाम ही परमात्मा है। तीन बातें हैं। एक, जो दिखाई पड़ता है, वह है । इंद्रियां जिसका अनुभव करती हैं, वह है। प्रत्यक्ष का यही अर्थ है कि जो आंखों के सामने है। उसे ही हम कहते हैं वह सत्य है, यथार्थ है। जिसे हम नहीं देख पाते, जिसे हम नहीं छू पाते, स्वभावतः हमारा मन कहता है वह नहीं है। क्योंकि होता, तो हम देख पाते, छू पाते, जान पाते ! तो दूसरी कोटि है, जो नहीं है। उसे हम देख भी नहीं पाते, छू भी नहीं पाते, जान भी नहीं पाते। अगर ये दो ही कोटियां हैं अस्तित्व की, तो परमात्मा की कोई भी जगह नहीं है, तो धर्म का कोई उपाय नहीं है, तो आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है, तो प्रेम की कोई भी संभावना नहीं है और सब प्रार्थनाएं झूठी हैं। लेकिन एक तीसरी कैटेगरी, एक तीसरी कोटि भी है। दो मैंने कहीं। एक, जिसे हम देख पाते, छू पाते, समझ पाते, वह है । जो नहीं है, उसे हम देख नहीं पाते, समझ नहीं पाते, छू नहीं पाते। इन दोनों से अलग एक कोटि और भी है, कि जो है, लेकिन जिसे हम छू नहीं पाते, समझ नहीं पाते, स्पर्श नहीं कर पाते, और फिर भी उसे हम इनकार नहीं कर सकते । यह तीसरी कोटि ही ईश्वर है। लाओत्से इसी तीसरी कोटि को ताओ कहता है। ताओ का अर्थ है धर्म, ताओ का अर्थ है नियम, ताओ का अर्थ है परम सत्ता का आधार, परम सत्ता, दि अल्टीमेट रियलिटी । यह तीसरा - जिसे ताओ कह रहा है लाओत्से - चाहे ईश्वर कहें, चाहे आत्मा कहें, चाहे सत्य कहें, नाम हमारे दिए हुए हैं, नाम से कोई अंतर नहीं पड़ता। बुद्ध ने इसे निर्वाण कहा है, शून्य कहा है । बुद्ध ने चूंकि इसे शून्य कहा, न समझने वाले लोगों ने समझा कि बुद्ध कह रहे हैं कि वह नहीं है। अगर बुद्ध को यही कहना होता कि वह नहीं है, तो शून्य भी कहने की जरूरत न थी । बुद्ध ने कहा, वह शून्य है। उसके होने को इनकार नहीं किया; नाम उसे शून्य का दिया । क्योंकि बुद्ध ने कहा कि शून्य, दोनों ही बातें समाहित हैं शून्य में। शून्य है भी और नहीं भी है । वह कुछ ऐसा है जैसे कि न हो। उसकी मौजूदगी गैर मौजूदगी जैसी है। उसके होने में भी वह प्रगाढ़ होकर प्रकट
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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