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________________ ताओ उपनिषद भाग २ 340 टाल्सटाय ने लिखा है कि मेरी मां बड़ी दयालु थी । उसकी दया का अंत नहीं था। शाही परिवार था। टाल्सटाय शाही ज़ार परिवार का आदमी था। मां काउंटेस थी। टाल्सटाय ने लिखा है कि मां की ऐसी दया की हालत थी कि नाटक देखते वक्त उसकी आंखें सूज जाती थीं रो-रो कर दो नौकरानियां दोनों तरफ आंसू पोंछने के लिए रूमाल बदलती रहती थीं। उसके हृदय पर ऐसे आघात होते थे नाटक में। नाटक में कोई भूखा मर रहा है, किसी के मकान में आग लग गई, किसी को उसके प्रेम में असफलता मिली, और वह जार-जार हो जाती थी । और टाल्सटाय ने लिखा है कि बाहर हमारा जो कोच, जिस पर हम बैठ कर बग्घी पर जाते थे, बर्फ पड़ती रहती मास्को में, और अक्सर ऐसा होता कि हमारा जो कोचवान होता, वह बर्फ में गल कर, दब कर मर जाता। जब बाहर काउंटेस मेरी मां आती, देखती कि कोचवान मर गया, उसको हटा कर फेंक कर सड़क के किनारे, दूसरा कोचवान रख कर वह कोच चल पड़ती। और मेरी मां अपने आंसू पोंछती रहती - नाटक में जो हुआ था। टाल्सटाय ने लिखा है कि उसी दिन से मुझे पता चला कि आदमी कैसा धोखा दे सकता है ! निकट बिलकुल नहीं दिखाई पड़ता । निकट के प्रति एकदम अंधे हैं, बहरे हैं। दूर के प्रति बड़े सचेत हैं। क्या इस टाल्सटाय की मां को यह दिखाई नहीं पड़ता होगा कि यह आदमी मर गया ? लेकिन कोचवान भी कहीं आदमी होता है? और जो नाटक में रो सकती थी, बड़ी हैरानी मालूम पड़ती है कि उसको खयाल में नहीं आता होगा ! नहीं, खयाल में नहीं आएगा। असल में, नाटक में रोना एक बचाव है। जो नाटक में रो सकते हैं, वे जिंदगी बिलकुल बधिर और अंधे होंगे। असल में, नाटक में रोकर वे अपना रोना निकाल लेते हैं । और वह रोना बिना खर्च के है, सस्ता है। क्योंकि कोचवान के लिए रोना मंहगा पड़ेगा, और कुछ करना पड़ेगा। आदमी ने बड़ी व्यवस्था की है। दूर के प्रति सिद्धांत निर्मित करके वह पास के प्रति जिम्मेवारी से बच गया है। इतनी गहन बेईमानी है इसमें कि जिसका कोई हिसाब नहीं है । लाओत्से कहता है, छोड़ो मानवता, छोड़ो न्याय; और लोग अपनों को पुनः प्रेम करने लगेंगे। यह जीवन को बिलकुल दूसरे ही ढंग से देखने की व्यवस्था है। लाओत्से कहता है, छोड़ दो फिक्र दूर की। अगर प्रेम निकट है, तो कभी दूर भी फैल सकता है। एक पत्थर को हम फेंक देते हैं पानी में। लहर उठती हैं पास; फिर फैलती चली जाती हैं। दूर | कोई ऐसा पत्थर आपने फेंकते देखा कि लहरें पहले उठें दूर और फिर आती चली जाएं पास ? जिस दिन ऐसा आप पत्थर फेंक सकें, उस दिन लाओत्से गलत हो जाएगा। उसके पहले गलत नहीं हो सकता । जीवन के तो नियम हैं। यहां सभी कुछ पास से शुरू होता है। अगर मेरे हृदय में प्रेम है, तो उसकी पहली लहर मेरे पास के लोगों को छुएगी। अगर मेरे हृदय में तरंग उठी है प्रेम की, तो जो मेरे निकटतम है, वह पहले आंदोलित होगा; उसको मेरा प्रेम पहले छुएगा। और अगर मेरे प्रेम की लहर इतनी बड़ी है कि उसके पार भी जा सके, तो उससे जो दूर है, उसको छुएगी। अगर और बड़ी है, तो और दूर। अगर मेरा प्रेम इतना बड़ा है कि सारे संसार को पार करके परमात्मा तक पहुंच सके, तो ही मेरा प्रेम उसके चरणों में निवेदित हो सकता है। उसके पहले नहीं । लेकिन मैं हूं कंजूस। मैं सोचता हूं, यहां फालतू आदमियों में प्रेम खर्च करके क्या है सार? बचा कर रखूं; परमात्मा के चरणों में ही सीधा चढ़ा दूंगा। मात्रा भी ज्यादा होगी, लाभ भी ज्यादा मिलेगा। लेकिन परमात्मा के चरणों तक पहुंचने का उपाय ही नहीं है। और प्रेम कोई संपदा नहीं है कि उसे बचाया जा सके। प्रेम एक ग्रोथ है, एक विकास है; जो जितना करता है, उतना ज्यादा प्रेम हो जाता है। जो जितना करता है, उतना ज्यादा हो जाता है। प्रेम कोई संपत्ति नहीं है कि खर्च हो जाए। प्रेम कोई संपत्ति होती, तो मैं जितना बांट दूं, उतना कम हो जाएगा। परमात्मा के दरवाजे पर पहुंचूंगा भिखारी की तरह। क्योंकि वह तो मैं पहले ही बांट चुका; जो रास्ते में मिले, उन्हीं को दे दिया। तो फिर बचाना जरूरी है।
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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