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________________ ताओ उपनिषद भाग २ 336 बुद्धिमत्ता ज्ञान का सार है। जैसे फूलों को निचोड़ कर इत्र बन जाए, सार । ऐसे समस्त अनुभव, समस्त ज्ञान का जो सार है, वह बुद्धिमत्ता है। बुद्धिमत्ता एक सुगंध है । हजार ज्ञान निचुड़ें, तो बूंद भर बुद्धिमत्ता बनती है। लेकिन लाओत्से कहता है, बुद्धिमत्ता भी छोड़ो। तो बहुत कठिन मालूम होता है। सूचना छोड़ें, समझ में आ सकता है; उधार है। ज्ञान भी छोड़ दें, समझ में आ सकता है; क्योंकि द्वंद्व है ज्ञान और अज्ञान का । यह बुद्धिमत्ता भी छोड़ दें, तो तत्काल हमारा मन कहेगा, पत्थर की भांति हो जाएंगे। फिर हममें और जड़ में फर्क क्या होगा? फिर आप जिस कुर्सी पर बैठे हैं, उसमें और आप में फर्क क्या होगा ? लेकिन हमारा यह जो मन सवाल उठाता है, यह लाओत्से को समझने में कठिनाई पैदा करेगा। लाओत्से कहता है, बुद्धिमत्ता छोड़ो। इसका अर्थ क्या है? लाओत्से कहता है, जो चीज पकड़ी जा सकती है, छोड़ी जा सकती है, वह तुम्हारी है ही नहीं। जो तुम छोड़ ही न सकोगे, वही बुद्धिमत्ता है। बाकी तुम सब छोड़ो। जो तुम छोड़ सकते हो, छोड़ते चले जाओ। एक घड़ी ऐसी आएगी कि तुम कहोगे, अब मेरे पास छोड़ने को कुछ बचा नहीं—धन नहीं, मकान नहीं, जानकारी नहीं, स्मृति नहीं, ज्ञान नहीं, कोई बुद्धिमत्ता नहीं, कोई अनुभव नहीं । जिस क्षण तुम कह सकोगे कि अब मेरे पास कुछ भी नहीं है, जिसे मैं छोड़ सकूं; लाओत्से कहता है, इसे शब्द देना उचित नहीं, पर यही बुद्धिमत्ता है। जिस बुद्धिमत्ता को छोड़ने से आप डरते हैं कि छोड़ने से मैं जड़ जैसा हो जाऊंगा, वह बुद्धिमत्ता है ही नहीं । ठीक से समझें, तो इसका अर्थ यह होता है कि जो छोड़ी ही नहीं जा सकती, वही बुद्धिमत्ता है। इसलिए लाओत्से बेफिक्री से कहता है, बुद्धिमत्ता छोड़ो। क्योंकि जो तुम छोड़ सकोगे, वह बुद्धिमत्ता नहीं थी । बुद्धिमत्ता, लाओत्से के हिसाब से, स्वभाव है। वह छोड़ा नहीं जा सकता। जो भी छोड़ा जा सकता है, वह स्वभाव नहीं है। लाओत्से कहता है, आत्यंतिक रूप से वही बच जाए, जो मैं हूं। कोई संग्रह मेरे ऊपर न रहे। दूसरे का ज्ञान तो छोड़ ही दो; अपने ज्ञान को भी क्या ढोना, उसे भी छोड़ दो। दूसरे के अनुभव तो उधार हैं ही, अपने अनुभव भी मृत हैं। मैंने जो कल जाना था, वह आज मुर्दा हो गया। मैंने जो कल जाना था, उसका जो सार है, वह मेरी बुद्धिमत्ता है। वह भी अतीत हो गया, व्यतीत हो गया । छोड़ो उसे भी, राख है। अंगार जलता है, तो राख इकट्ठी होती है। कभी आपने खयाल किया कि जो अभी राख है, वह भी थोड़ी देर पहले अंगार थी। कहीं बाहर से नहीं आई है, अंगार का ही हिस्सा है। लेकिन अगर अंगार को जलता हुआ रहना है, तो राख को छोड़ते जाना है। लाओत्से कहता है, तुम्हारी बुद्धिमत्ता भी तुम्हारे स्वभाव पर राख है; तुमसे ही आती है। तुम अंगार हो । राख को भी झाड़ते चले जाओ। सिर्फ प्रज्वलित अग्नि रह जाए; सिर्फ तुम्हारा स्वभाव रह जाए। उस पर कुछ भी न हो। दूसरे के द्वारा डाली गई राख और अपने ही अंगार से पैदा हुई राख में भी क्या फर्क है ? क्या इसी कारण कि यह राख मुझसे पैदा हुई है, प्यारी है, और इससे चिपके रहो । आप पचास साल जीए हैं, तो पचास साल के अनुभव की राख आपके पास इकट्ठी हो गई है। इसमें जो आपने दूसरों से सीखा, वह सूचना है, इनफरमेशन है। इसमें जो आपने अपने से जाना, वह नालेज है, ज्ञान है। ज्ञान और सूचना, सब के तालमेल से जो निचोड़, जो एसेंस, जो सुगंध आपके भीतर पैदा हो गई, वह आपकी बुद्धिमत्ता है | लाओत्से कहता है, इसे भी छोड़ो। तुम सिर्फ वही रह जाओ, जो तुम हो— निपट तुम्हारे स्वभाव में । नेकेड नेचर, शुद्धतम वही रह जाए, जो है । इसको महावीर आत्मा कहते हैं। इसको बुद्ध शून्यता कहते हैं। ये शब्दों के फासले हैं। लाओत्से इसको सिर्फ स्वभाव कहता है; ताओ कहता है। 'छोड़ो बुद्धिमत्ता, ज्ञान को हटाओ ! और लोग सौ गुना लाभान्वित होंगे।'
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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