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________________ ताओ उपनिषद भाग २ कोई बहुत बुद्धिमान आदमी नहीं था। कोई उसे बुद्धिमान नहीं मानता था। और आज हालत ऐसी है, पश्चिम में कम से कम, कि जिसको लोग बुद्धिमान मानते हैं, अगर उसने अब तक आत्महत्या नहीं की है, तो उसकी बुद्धि पर शक होता है। क्योंकि अगर जीवन व्यर्थ है, तो आत्महत्या ही एकमात्र उपाय है। अगर मुझे यह पक्का पता चल जाए कि जीवन में कोई भी सार नहीं है, तो फिर जीने के लिए चेष्टा ही...! निजिस्की ने आत्महत्या करने के पहले एक पत्र में लिखा है कि मैं आत्महत्या कर रहा हूं; लेकिन कोई यह न समझे कि मैं कायर है। स्थिति उलटी है। तुम अपनी आत्महत्या नहीं कर सकते, कायर हो, इसलिए जीए चले जाते हो। मैं कर सकता है: मैं कायर नहीं है। इसलिए मैं तुम्हारे इस व्यर्थ जीवन की दौड़-धूप से अपना छुटकारा चाहता हूं। निजिस्की की बात एकदम गलत नहीं मालूम पड़ती है। अगर आप भी अपने से पूछेगे कि क्यों जीए चले जाते हैं, तो शायद कायरता ही कारण हो। मरने की हिम्मत न जुटा पाते हों, तो जीए चले जाते हैं, ढोए चले जाते हैं। यह ढोने का भाव पहली दफा आया है दुनिया में। ज्ञान के बढ़ने के साथ आत्म-अज्ञान बढ़ गया। इधर राशि बढ़ गई बाहर के ज्ञान की, उधर भीतर अज्ञान की राशि बढ़ गई। संतुलन पूरा हो गया। लाओत्से कहता है कि आत्मज्ञान नहीं जन्म सकता, जब तक इस बाहर के ज्ञान से छुटकारा न हो। इधर हम देखते हैं, अगर हम तीन सौ वर्ष के मनुष्य के विचार को उठा कर देखें, तो ह्यूमैनिटी, मनुष्यता का सिद्धांत बहुत गति पाया। लेकिन इन तीन सौ वर्षों में हमने जितने युद्ध किए और जिस भयंकर ढंग से युद्ध किए, उनकी कोई तुलना इतिहास में नहीं है। इधर मनुष्यता का खयाल बढ़ता चला गया और उधर हम हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम भी गिरा दिए। इधर सारी दुनिया में चीख-पुकार चलती है मनुष्यता की और उधर वियतनाम में युद्ध चलता चला जाता है। जो मनुष्यता की बात करते हैं, वे ही युद्ध को चलाए भी चले जाते हैं। अगर मनुष्यता का इतना बोध दुनिया में पैदा हो गया है, तो युद्ध बंद हो जाने चाहिए। लेकिन युद्ध बंद होते नहीं दिखाई पड़ते। इधर हम न्याय की बड़ी चिंता करते हैं। और अन्याय का कोई हिसाब नहीं है। और न्याय के नाम पर जब भी हम कोई बदलाहट करते हैं, तो अन्याय की एक नई व्यवस्था निर्मित हो जाती है। और कोई फर्क नहीं पड़ता है।' हमारी सब क्रांतियां बीमारियों को नष्ट नहीं करतीं, केवल बीमारियों को कंधे बदल देती हैं। और हमारे सब सुधार सिर्फ आशा बंधाते हैं, परिणाम कोई भी नहीं आता। जो हम चाहते हैं, उससे उलटा परिणाम आता है। सोचते हैं हम कि जितनी अदालतें होंगी, जितना कानून होगा, उतने अपराध कम होंगे। लेकिन आंकड़े उलटी कहानी कहते हैं। जितने कानून बढ़ते हैं, जितनी अदालतें बढ़ती हैं, जितने न्यायाधीश बढ़ते हैं, उतने अपराधी बढ़ते हैं। अपराधी कम नहीं होते। अगर हम दो हजार साल का अपराध का इतिहास देखें, तो ठीक अनुपात में बढ़ती होती है। कानून बढ़ते हैं, अपराधी बढ़ते हैं। अपराधी बढ़ते हैं, तो कानूनविद डरते हैं कि कानून शायद कम हैं, इसलिए अपराधी बढ़ रहे हैं। वे और कानून बढ़ा लेते हैं। अपराधी और बढ़ जाते हैं। किसी भ्रांत तर्क में मनुष्य का मन घूमता है। जब अपराधी और बढ़ जाते हैं, तो हम और कानून की व्यवस्था जमा लेते हैं। और तब ऐसा मालूम पड़ता है कि अपराधी और न्यायाधीश के बीच एक गहरा संबंध है। और तब ऐसा मालूम पड़ता है कि चोर और पुलिसवाला एक ही सिक्के के दो पहल हैं। वे दो चीजें नहीं हैं। कहीं भीतर जड़े हैं। एक बढ़ता है, दूसरा भी बढ़ता है। एक की ग्रोथ दूसरे की ग्रोथ तभी हो सकती है, जब दोनों जुड़े हौं। कहीं भीतर जोड़ है। और एक का रस दूसरे को भी मिलता है, और एक का जीवन दूसरे को भी मिलता है। . लाओत्से की दृष्टि बिलकुल और है। लाओत्से कहता है कि तुम्हारे सब अच्छे सिद्धांत, तुम्हारी सब अच्छी धारणाएं तुम्हारी सारी बुराइयों की जड़ में हैं। 318
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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