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________________ ताओ का द्वार-महिष्णुता व विष्पक्षता इसलिए बुद्ध जैसे व्यक्ति को महल से हट कर भी हमने देखा, पर उनकी गरिमा में कोई फर्क नहीं पड़ता। शायद गरिमा और बढ़ जाती है। शायद गरिमा और बढ़ जाती है। अगर किसी कुरूप शरीर पर कपड़े पहना दिए जाएं, तो कुरूपता कम हो जाती है। इसलिए दुनिया में जब तक बहुत सौंदर्य नहीं होता, तब तक कपड़े आदमी का बहुत पीछा करेंगे ही। कपड़े सौंदर्य तो नहीं ला सकते, लेकिन कुरूपता को ढांक सकते हैं। नहीं जिनके पास सौंदर्य है, उनके लिए इतना भी क्या कम है कि कुरूपता ढंक जाती है। कुछ तो बहाना सुंदर होने का हो जाता है। लेकिन अगर अन्यतम सुंदर व्यक्ति हो, तो कपड़े हट जाने पर उसका सौंदर्य और पूरी तरह प्रकट होता है। तो जो दीन-दरिद्र हैं, उन्हें महलों में बिठाल दो, तो उनकी दीनता-दरिद्रता छिप जाती है। गरिमा नहीं आ जाती सम्राट की। लेकिन अगर गरिमा सम्राट की हो, तो छीन लो महल, हटा लो ताज-तख्त, तो उस नग्नता में वह और भी जोर से प्रकट हो जाती है। यह जो सम्राट की गरिमा है, यह एक आंतरिक मालकियत का परिणाम है-एक इनर, एक आंतरिक मालकियत, एक स्वामित्व। जो परिवर्तन से बंधा है, वह हमेशा गुलाम रहेगा। आज इस पर निर्भर रहना पड़ेगा, कल उस पर निर्भर रहना पड़ेगा। परिवर्तन के जगत में हजार-हजार चीजों पर निर्भर रहना पड़ेगा। जो परिवर्तन से हट कर शाश्वत से अपने को जोड़ लेता है, अब वह मालिक हुआ। अब उसे किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। अब वह सारे परिवर्तनों के बीच से मालिक की तरह गुजर सकता है। उसकी मालकियत आंतरिक है। 'सम्राट जैसी गरिमा को उपलब्ध होकर स्वभाव के साथ अनुरूप हुआ वह ताओ में प्रविष्ट होता है।' । धर्म के गहनतम लोक में वही प्रविष्ट होते हैं, जो सम्राट की गरिमा से प्रविष्ट होते हैं। दीनता से, रो-पीट कर, मांग कर वहां कोई प्रविष्ट नहीं होता। जीसस ने कहा है : जिनके पास है, उन्हें और दे दिया जाएगा; और जिनके पास नहीं है, उनसे और छीन लिया जाएगा। पागल रहा होगा जीसस! लेकिन यह एंटी-मैटर, वह दूसरे जगत के नियम हैं। बड़ी उलटी बात है। साधारण बुद्धि भी कहेगी, जिनको थोड़ा भी गणित आता है, वह भी कहेगा, जिनके पास नहीं है, उन्हें दो। अगर छीनना ही है, तो उनसे छीन लो, जिनके पास है। और उन्हें दे दो, जिनके पास नहीं है। यह सीधा गणित है। लेकिन जीसस कहते हैं, जिनके पास है, उन्हें और दे दिया जाएगा; और जिनके पास नहीं है, सावधान रहें वे, उनसे और छीन लिया जाएगा। उस जगत में कोई दीन की तरह प्रविष्ट नहीं हो सकता। उस जगत में तो सम्राट की तरह ही कोई प्रविष्ट होता है। असल में, उस जगत की चाबी ही स्वामित्व है। इसलिए हम संन्यासी को स्वामी कहते रहे हैं। सभी संन्यासी स्वामी होते हैं, ऐसा नहीं। लेकिन संन्यासी को हम स्वामी इसलिए कहते रहे हैं उस इनर, उस भीतरी मालकियत। वही तो चाबी है उस महल में प्रवेश की, जिसको लाओत्से ताओ कहता है, बद्ध ने जिसे धम्म कहा है, वेद ने जिसे ऋत कहा है, जीसस ने जिसे किंगडम ऑफ गॉड कहा है। ये सिर्फ शब्दों के फर्क हैं। _ 'स्वभाव के अनुरूप हुआ वह ताओ में प्रविष्ट होता है। ताओ में प्रविष्ट होकर वह अविनाशी है।' जब तक हम परिवर्तन से अपने को जोड़े हुए हैं, तब तक हम विनाश से अपने को जोड़े हुए हैं। तब तक हम . मिटते ही रहेंगे, मिटते ही रहेंगे। बनेंगे और मिटेंगे। बनेंगे इसीलिए कि मिटें। वहां बनना और मिटना अनिवार्य है। जो आदमी समझ ले कि मैं वस्त्र हूं, तो दो-तीन महीने में उसको मरना पड़ेगा। दो-तीन महीने में वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जाएंगे, छोड़ने पड़ेंगे, फिर नए वस्त्र पहनने पड़ेंगे। अगर किसी आदमी ने ऐसा समझ लिया कि मेरे वस्त्र ही मैं हूं, तो हर तीन महीने में मरना और पुनर्जन्म। फिर नए कपड़े, तो फिर नया जन्म। फिर अब स से शुरू करेगा वह आदमी। जितनी परिवर्तनशील चीज से आप अपने को बांधेगे, उतना ज्यादा विनाश, उतना रोज-रोज सब बदलना पड़ेगा। रोज मरना होगा, रोज जन्मना होगा। हम अपने को वस्त्रों से नहीं बांधते हैं, शरीर से बांधते हैं। इसलिए पचास-साठ साल, सत्तर साल, अस्सी साल में मरना पड़ता है। 291
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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