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________________ ताओ उपनिषद भाग २ भी नहीं हूं। वह आदमी ऐसे पूछता जाता है कि आप यह हैं, आप यह हैं? और बुद्ध कहते जाते हैं, नहीं, मैं यह भी नहीं हूं। नहीं, मैं यह भी नहीं हूं। वह आदमी बेचैन हो जाता है और वह कहता है कि कुछ भी आप नहीं हैं। कुछ तो आप कहें, आप कौन हैं? तो बुद्ध ने कहा कि कभी मैं पशु भी था। पशु होने के कारण थे। वासनाएं ऐसी थीं कि पशु होना अनिवार्य था। कभी मैं मनुष्य भी था। वासनाएं ऐसी थीं, जो मुझे मनुष्य बनाती थीं। कभी मैं देव भी था। वासनाएं ऐसी थीं, जो मझे देव बनाती थीं। वे सब कारण-अस्तित्व थे। अब तो मैं सिर्फ बुद्ध हूं। न मैं मनुष्य हूं, न मैं देव हूं, न मैं पशु हूं; मैं सिर्फ बुद्ध हूं। उस आदमी ने पूछा कि बुद्ध का क्या अर्थ? तो बुद्ध ने कहा, अब मैं सिर्फ जागा हुआ हूं। अब सिर्फ मैं एक जागी हुई चेतना हूं। अब मैं सिर्फ एक होश हूं, एक चैतन्य हूं। अब मैं कोई व्यक्ति नहीं हूं। क्योंकि व्यक्ति तो निर्मित ही होता है परिवर्तन को पकड़ लेने से, रूप को पकड़ लेने से। कभी मैंने पशुओं के रूप पकड़े, कभी मैंने मनुष्यों के, कभी मैंने वृक्षों के; वे मेरे व्यक्तित्व थे। अब मैं कोई व्यक्ति नहीं हूं। अब मैं सिर्फ एक चैतन्य मात्र हूं-एक ज्योति का दीया। शाश्वत नियम को उपलब्ध कर लेने का यह अर्थ है कि साक्षीत्व का एक दीया–परिवर्तन मैं नहीं हूं, शाश्वत मैं हूं। फिर कोई असहिष्णुता पैदा नहीं होती। क्योंकि परिवर्तन से कोई लगाव ही न हो, तो लगाव के टूटने का भी कोई उपाय नहीं रह जाता। जो आशा रखते हैं, वे कभी निराश हो सकते हैं। लेकिन जो आशा ही नहीं रखते, उनके निराश होने का उपाय कहां? और जिनके पास संपत्ति है, वे कभी दरिद्र हो सकते हैं। लेकिन जिनके पास कुछ भी नहीं है, जो किसी संपत्ति से अपने को पकड़ नहीं लिए हैं, उनके दरिद्र होने का कोई उपाय नहीं है। अगर मैंने कुछ पकड़ा नहीं है, तो आप उसे मुझसे छीन न सकेंगे। आपका छीनना संभव हो पाता है मेरे पकड़ने की वजह से। आप छीन सकते हैं, अगर मैं कुछ पकड़े हुए हूं। और अगर मैं कुछ भी पकड़े हुए नहीं हूं, तो आप छीन कैसे सकते हैं? यह जो साक्षी-भाव है, यह जो शाश्वत नियम का बोध है, यह सारे परिवर्तन के जगत से पकड़ का छुट जाना है। फिर गंगा बहती रहती है और मैं किनारे बैठा हूँ। और गंगा के पानी में कभी फूल बहते हुए आ जाते हैं, तो उनको देख लेता हूं। और कभी किसी का अस्थिपंजर बहता हुआ आता है, तो उसे देख लेता हूं। और कभी गंगा गंदे पानी से भर जाती है वर्षा के, मटमैली हो जाती है, तो उसे देख लेता हूं। और कभी ऐसी स्वच्छ हो जाती है कि आकाश के तारे उसमें झलकते हैं, तो उसे देख लेता हूं। लेकिन मैं गंगा नहीं हूं; उसके किनारे बैठा हूं। परिवर्तन के किनारे जो साक्षी का भाव है, वह थिर हो जाए, तो फिर गंगा में क्या बहता है और क्या नहीं बहता, इससे मेरे भीतर कोई चिंता पैदा नहीं होती। और गंगा के निरंतर प्रवाह को देख कर मैं जानता हूं, आशा नहीं बांधनी चाहिए। इसमें कभी फूल भी आते हैं और कभी राख भी बहती है। इसमें कभी तारे भी झिलमिलाते हैं और कभी यह गंगा बिलकुल गंदी हो जाती है और कुछ भी नहीं झिलमिलाता। और कभी यह गंगा विक्षिप्त होकर बहती है, बाड़ तोड़ देती है। और कभी यह गंगा सूख कर दुबली-पतली धारा हो जाती है और शांत मालूम होती है। यह गंगा का होना है। इससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है। मैं उसके किनारे खड़ा हूं। शाश्वत नियम का बोध, परिवर्तन के किनारे जो साक्षी का भाव है, उसमें थिर हो जाने का नाम है। लाओत्से कहता है, 'जो सहिष्णु हो जाता है, वह निष्पक्ष हो जाता है।' इसे समझना पड़े। असल में, पक्ष तभी तक हैं, जब तक परिवर्तन में कोई चुनाव है। मैं कहता हूं यह आदमी अच्छा है, क्योंकि यह आदमी मेरे साथ वैसा ही व्यवहार करता है जैसी मेरी अपेक्षा है। और मैं कहता हूं यह आदमी 284
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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