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________________ ताओ उपनिषद भाग २ इसलिए बुद्ध अनात्मा की बात कहते हैं। बुद्ध ने अस्मिता की जगह आत्मा शब्द का उपयोग किया है। बुद्ध कहते हैं, अहंकार छूटे और फिर आत्मा भी छुटे; तभी परम सत्य में प्रवेश है। इस सारी बात में जो कठिनाई हमारे मन में होती है, वह यह कि फिर क्या ऐसे व्यक्ति को हम संत कहेंगे जो अभी मन में ही हो? क्या हम कहेंगे कि उसने परम सत्य को पा लिया? भाषा में सभी बातें सापेक्ष हैं, रिलेटिव हैं। जब हम कहते हैं, संत ने परम सत्य पा लिया, तो उसका इतना ही मतलब होता है कि जहां हम खड़े हैं, वहां से संत परम सत्य के बहुत निकट पहुंच गया। हमारे और सत्य के बीच पत्थर की दीवार है; उसके और सत्य के बीच कांच की दीवार है, जो दिखाई भी नहीं पड़ती। अब सत्य उसे इतना ही साफ है, जैसे कि दीवार न हो। लेकिन दीवार अभी है। वह दीवार हमें दिखाई नहीं पड़ेगी, एक बात समझ लें। जो स्वयं संत नहीं हो गए हैं, उन्हें वह दीवार बिलकुल दिखाई नहीं पड़ेगी। वे तो कहेंगे कि संत के लिए अब कोई दीवार न रही। लेकिन जो उस दीवार के पास पहुंच गया है, स्वयं संत, उसे वह दीवार पता चलेगी। क्योंकि दीवार पारदर्शी है; दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन स्पर्श होता है। पार होना चाहो, तो सिर टकराता है। उस पार का सब कुछ दिखाई पड़ता है। लेकिन दिखाई ही पड़ता है, अगर उसमें प्रवेश करना चाहो, तो दीवार बीच में खड़ी हो जाती है। अस्मिता इतनी सूक्ष्म दीवार है कि सिर्फ संत को दिखाई पड़ती है। संत के भक्तों को भी दिखाई नहीं पड़ सकती। संत के भक्तों को तो लगता है कि संत परमात्मा हो गया। स्वाभाविक! संत के भक्तों ने कांच की कोई दीवार नहीं देखी, पत्थर की दीवारें देखी हैं। लेकिन संत को स्वयं प्रतिपल अनुभव होता है कि एक सूक्ष्म दीवार अभी भी उसे घेरे हुए है। अभी वह मिट नहीं गया है। अभी भी वह है। लाओत्से संत के अनुभव से कह रहा है कि अस्मिता भी पिघल जाए, पिघल जाए, खो जाए, तभी; उसके पहले नहीं। लेकिन हमारे अनुभव से हम कह सकते हैं कि संत ईश्वर हो गया। सापेक्ष है। हम भी जब संत होंगे, तब हम पाएंगे कि नहीं, अभी एक दीवार और रह गई है। अभी होना भी बाधा है। वह भी खो जाना चाहिए; वह भी मिट जाना चाहिए। जब तक संत की जगह शून्य न आ जाए, तब तक वह दीवार भी नहीं गिरती। तीसरा प्रश्न : ताओ में निष्णात एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति के लक्षण बताते समय लाओत्से कहता है कि ऐसे व्यक्ति अपने बारे में किसी प्रकार की घोषणा नहीं करते हैं। लेकिन मंसूर कहते हैं, अनलहका उपनिषद के ऋषि करते है, अहं ब्रह्मास्मि। जीसस कहते हैं, मैं परमात्मा का पुत्र हूं! मेहरबाबा कहते हैं अवतार, भगवान स्वयं को। तो इन सबकी घोषणाओं का लाओत्से के उपरोक्त वचन से क्या संबंध है? इस सूत्र को समझना हो, तो दो बातें समझनी जरूरी हैं। पहला : जीवन को समझने के, जीवन को प्रकट करने के, जीवन को शब्द देने के दो ढांचे हैं। एक विधायक, एक नकारात्मक; एक पाजिटिव, एक निगेटिव। जब भी हम कोई चीज कहना चाहें, तो दो ढंग से कह सकते हैं। इस कमरे में अंधेरा हो, तो हम कह सकते हैं, अंधेरा है; और हम यह भी कह सकते हैं कि प्रकाश नहीं है। एक आदमी जीवित हो, तो हम यह भी कह सकते हैं, वह जीवित है; और हम यह भी कह सकते हैं कि वह अभी मरा नहीं है। विधायक, पाजिटिव अभिव्यक्ति हो सकती है और नकारात्मक, निषेधात्मक, निगेटिव। निर्भर करता है व्यक्तियों के ऊपर। लाओत्से और बुद्ध नकारात्मक शब्दों को अत्यंत प्रेम करते हैं। किसी भी चीज को कहना हो, तो वे नकारात्मक ढंग से ही कहना उचित मानते हैं। उसके कारण भी हैं। उसके अनेक कारण हैं। सबसे बड़ा कारण तो यह 246
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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