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________________ संत की पहचान सजग व अनिर्णीत, अहंशून्य व लीलामय 213 पूछा था, ईश्वर है? उसकी कोई मान्यता नहीं थी । बिना मान्यता के उसने पूछा था, ईश्वर है ? ऐसे आदमी से अगर मैं कहूं है, तो शायद वह मेरे है के कारण मान ले कि है। ऐसे आदमी से मैं कहूं कि नहीं है, तो शायद मेरे नहीं है के कारण मान ले कि नहीं है । इतना निर्दोष कि उसके सामने शब्द का उपयोग करना खतरनाक था। इसलिए मैं मौन रह गया। और मेरे मौन ने ही उसको भी हिलाया और वह उत्तर लेकर गया है कि अगर ईश्वर को जानना है, तो मत पूछो है या नहीं, मौन हो जाओ । असंगत हैं बातें - ऊपर से देखने पर । भीतर एक संगति का तार है । वह गूढ़ है, वह छिपा है। शब्द में नहीं पकड़ में आएगा। ऐसे व्यक्ति अनिर्णीत, इररिजोल्यूट, अनिश्चित... कोई सिद्धांत नहीं है उनका । कोई दृढ़ बंधन नहीं है उनका, कोई बंधन नहीं। मुक्त जैसे आकाश में उड़ने को सदा तत्पर । और चौकन्ने । ध्यान रहे, जो जितना निर्णीत होगा, उतना मूर्च्छित हो जाएगा। जितना अनिर्णीत होगा, उतना चौकन्ना होगा। आप निर्णीत होते ही इसीलिए हैं, इसीलिए होना चाहते हैं, ताकि शांति से सो सकें । यह चौकन्नापन न रहे चौबीस घंटे। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि आप पक्का कह दें, ईश्वर है? मैं उनसे कहता हूं, मैं कितना ही पक्का कहूं, इससे तुम्हें क्या होगा ? वे कहते हैं कि हमें भरोसा हो जाएगा, निर्णय हो जाएगा कि ईश्वर है। यह किसलिए कह रहे हैं? इसलिए नहीं कि ईश्वर को खोजना चाहते हैं; इसलिए कि है, ऐसा पक्का हो जाए, तो इनको चौकन्ने होने की जरूरत न रहे, खोजना न पड़े। खोजने में खतरा है। खोजने में श्रम है । खोजने में शक्ति लगेगी। साहस की जरूरत होगी। चुकाना पड़ेगा मूल्य । वह सब झंझट न हो, कुछ करना न पड़े; कोई कह दे । वे कहते हैं मुझसे कि आप कह भर दें। आप क्यों संकोच करते हैं? पक्का कह दें कि है, तो हम निश्चित हो जाएं। निश्चित आदमी किसलिए होना चाहता है ? ताकि मूच्छित हो जाए, सो जाए, कुछ करना न पड़े। जितना अनिर्णीत होगा व्यक्ति, उतना सजग होगा। कभी आपने खयाल किया ? एक आदमी आपके पड़ोस में, अजनबी, आकर बैठ जाता है; आपकी रीढ़ फौरन कुर्सी को छोड़ कर चौकन्नी हो जाती है। एक अजनबी आदमी बगल में बैठा है, तो आप चौकन्ने हो जाते हैं। फिर आप सिलसिला शुरू करते हैं: नाम ? धाम ? कितनी तनख्वाह मिलती है ? कुछ ऊपर भी मिल जाता है या नहीं? थोड़ी देर में आप अपनी रीढ़ कुर्सी से टिका लेते हैं कि ठीक है जान लिया। अब आप निश्चित हो गए। अब कोई इसका भय रखने की जरूरत नहीं है। अपने ही जैसा चोर है, कोई अजनबी नहीं है, ठीक अपने ही जैसा है। अब आप निश्चित हो जाते हैं। हमारी जो इतनी आतुरता होती है परिचय बनाने की, वह इसलिए नहीं होती कि हम दूसरे में उत्सुक हैं। हमारी आतुरता इसीलिए होती है, ताकि हमें निश्चित करो, साफ हो जाए कि कौन हो— हिंदू हो, कि मुसलमान हो, कि जैन हो – तो हम पक्का कर लें। एक कैटेगरी हमारे मन में है कि मुसलमान ऐसा होता है, जैन ऐसा होता है, हिंदू ऐसा होता है। तो हम जल्दी से अपने खांचे में तुम्हें बिठाएं और निश्चित हो जाएं। यह तुम्हारी वजह से बेचैनी पैदा हो रही है। यह मन पूछता है कि कौन है यह आदमी ? यह जो पूरे समय हम हमेशा सोने की कोशिश कर रहे हैं। हमारा धर्म, हमारे शास्त्र, हमारे तथाकथित साधु-संत, वे सब हमें सोने में सहायता देते हैं, वे सांत्वना देते हैं। लाओत्से कहता है, अनिश्चित थे वे, अनिर्णीत थे वे, चौकन्ने थे। कुछ भी निश्चित न था, तो चौकन्ना रहना ही पड़ेगा। सारा जगत अजनबी है। किसी से कोई परिचय नहीं है। सब परिचय झूठा है। तो चौकन्ना रहना पड़ेगा। एक-एक इंच चल रहे हैं, तो अनजान रास्ते पर चल रहे हैं।
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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