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________________ 201 2 हसू बहुत अनूठा है। अनूठा इसलिए है कि संतों के संबंध में हमारी जो धारणा है, उसके बिलकुल प्रतिकूल है। संत के संबंध में जैसा हम सोचते हैं, वैसा लाओत्से नहीं सोचता । लाओत्से का संत ज्यादा समग्र व्यक्ति है । हमारा संत अधूरा है। हम ज संत कहते हैं, आमतौर से उसे संत न कह कर सज्जन कहें, तो उचित हो । दुर्जन और सज्जन हमारी बुद्धि की पकड़ के भीतर होते हैं। जो बुरा कर रहा है, वह दुर्जन है; और जो भला कर रहा है, वह सज्जन है। सज्जन में हम, जो भी शुभ है, उसे जोड़ देते हैं; और दुर्जन में, जो भी अशुभ है, उसे लेकिन लाओत्से का संत समग्र व्यक्ति है, इंटिग्रेटेड । वह दुर्जन के खिलाफ नहीं है और मात्र सज्जन नहीं है। वह दोनों है और दोनों के पार है। वह एक साथ दोनों है, इसलिए दोनों के पार होने में समर्थ है। इस सूत्र को समझने में दो-तीन बातें हम पहले समझ लें। और फिर सूत्र की मौलिक आत्मा में प्रवेश करें। एक महत्वपूर्ण बात लाओत्से कहता है, 'प्राचीन समय में ताओ में प्रतिष्ठित एवं निष्णात संतजन सूक्ष्म और अति संवेदनशील अंतर्दृष्टि से उसके रहस्यों को समझने में सफल हुए। और वे इतने गहरे थे कि मनुष्य की समझ के परे थे।' पहली बात, विज्ञान में नए सत्यों का उदघाटन निरंतर होता है। इसलिए विज्ञान के जगत में मौलिक चिंतक होते हैं, जो नई खोज करते हैं। धर्म के जगत में मौलिक चिंतन का कोई अर्थ नहीं होता। धर्म के जगत में नए सत्य की कोई खोज नहीं होती है। धर्म के जगत में सत्य न तो नया है, न पुराना । सनातन है। उसी सत्य का पुनः पुनः उदघाटन होता है। व्यक्ति के लिए नया हो, क्योंकि उसने पहली बार जाना; लेकिन वह सत्य नया नहीं है। सत्य सदा से है । इसीलिए विज्ञान के सत्य आज नए होते हैं, कल पुराने पड़ जाते हैं। जो भी नया है, वह पुराना पड़ेगा ही । धर्म सत्य न तो नए होते और न पुराने पड़ते। क्योंकि जो नया नहीं है, उसके पुराने पड़ने का कोई उपाय भी नहीं है। धर्म निजी खोज है उस सत्य की, जो सदा है। इसलिए चाहे कृष्ण, चाहे क्राइस्ट, चाहे महावीर, चाहे लाओत्से, वे सभी उन ऋषियों की बात करते हैं, जिन्होंने पहले भी इस सत्य को पाया है। यह थोड़ा विचारणीय है। वैज्ञानिक जब भी किसी सत्य की बात करेगा, तो वह कहेगा कि पहले इसे किसी ने भी नहीं पाया। अगर पहले भी इसे किसी ने पा लिया है, तो वैज्ञानिक की खोज व्यर्थ हो जाती है। अगर न्यूटन को कुछ सिद्ध करना है, तो वह कहेगा कि पहले इसे किसी ने भी नहीं पाया। विज्ञान में यह अनिवार्य है । अगर पहले किसी ने पा लिया है, तो न्यूटन के होने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए विज्ञान में हर चिंतक को सिद्ध करना पड़ता है कि मैं नया हूं, मौलिक हूं, ओरिजिनल हूं। धर्म की स्थिति बिलकुल उलटी है। यहां अगर कोई चिंतक यह सिद्ध करने की कोशिश करे कि नया है, तो
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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