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________________ अक्षय व निराकान, सनातन व शून्यता की प्रतिमूर्ति अनुभव होगा। अगर कभी कोई अनुभव भी किसी काम को प्रेम किया इसे भी हमें समझना आसान होगा, अगर हम प्रेम से इसे जोड़ें। अगर आपके जीवन में कभी भी वह सौभाग्य का क्षण आया है, जब आपने किसी को प्रेम किया हो...। यह इसलिए कहता हूं कि बहुत मुश्किल से कभी करोड़ में एकाध बार कोई आदमी किसी को प्रेम करता है। चर्चा करते हैं लोग प्रेम की। और चर्चा इसीलिए करते हैं, क्योंकि प्रेम का कोई अनुभव नहीं। चर्चा से मन को भरते हैं, समझाते हैं। संतुलन खोजते हैं चर्चा से, सांत्वना खोजते हैं। अगर कभी किसी ने किसी को प्रेम किया हो, क्षण भर को भी वह झलक मिली हो, तो एक अनूठा अनुभव होगा कि जिससे आप प्रेम करेंगे, अगर प्रेम के क्षण में आप हों तो आपको उसका चेहरा नहीं दिखाई पड़ेगा। यह बहुत कठिन मामला है। अगर आपने किसी को प्रेम किया है, एक क्षण को भी आपका हृदय प्रेम से भर गया है, तो आपके प्रेमी का, आपकी प्रेयसी का चेहरा खो जाएगा। और आपको अपने प्रेमी में, अपनी प्रेयसी में उसकी झलक मिलेगी, जिसका कोई चेहरा नहीं है।। इसीलिए जिन्होंने गहरा प्रेम किया है, उन्होंने अपने प्रेमियों की ऐसे चर्चा की है जैसे वे ईश्वर की चर्चा कर रहे हों। इसलिए बहुत मुश्किल है, प्रेमियों के वचन खोज कर यह तय करना मुश्किल है कि वे प्रेमी की चर्चा कर रहे हैं कि परमात्मा की चर्चा कर रहे हैं! अगर आपने प्रेम-काव्य पर कभी नजर डाली है, तो आपको निरंतर कठिनाई अनुभव होगी कि यह प्रेमी की चर्चा है या परमात्मा की! यह उमर खय्याम किसकी बात कर रहा है? प्रेयसी की या परमात्मा की? शराब की या समाधि की? बहुत कठिन है, बहुत कठिन है। इसलिए शराब बेचने वाली दुकानें उमर खय्याम नाम रख लेती हैं। प्रेमी प्रेम के क्षण में निराकार से संबंधित हो जाता है, आकार खो जाता है। रूप खो जाता है, अरूप प्रकट होता है। प्रेम की कीमिया, प्रेम की अल्केमी यही है कि रूप से उसकी शुरुआत होती है, अरूप पर उसका अंत होता है। पहले तो रूप ही खींचता है। लेकिन रूप खींचता इसीलिए है कि रूप में से कुछ भीतरी स्वर्ण झलकता है, कोई भीतरी दीप्ति, जो रूप की नहीं है। खींचता तो फूल ही है पहले, लेकिन फूल भी इसीलिए खींचता है कि सौंदर्य उसके इर्द-गिर्द आभा बनाए हुए है। रूप ही खींचता है पहले, लेकिन भीतर अरूप की दीप्ति! जैसे कि हम एक कांच के घर में एक छोटा सा दीया जला दें। दीया कहीं भी दिखाई न पड़े, कांच का घर ही दिखाई पड़े; लेकिन दीए की झलक, दीप्ति बाहर आती हो। दीए की लौ तो दिखाई न पड़ती हो, लेकिन दीए की किरणें बाहर आती हों, हलकी रोशनी बाहर झलकती हो। तो कांच का घर हमें खींचे अपनी तरफ। लेकिन अगर घर पर ही हम रुक जाएं, तो भूल हो गई। घर के भीतर जो छिपा है! एक सुंदर शरीर खींचता है निकट, कुछ भी बुरा नहीं है, कुछ भी पाप नहीं है। बुराई तो तब शुरू होती है, जब भीतर के दीए का पता ही नहीं चलता और सुंदर शरीर ही सब कुछ हो जाता है। तब उपद्रव शुरू होता है। अगर रूप खींचे और अरूप अनुभव में आने लगे, तो एक क्षण आएगा कि रूप भूल जाएगा और अरूप ही रह जाएगा। अगर कोई ठीक से प्रेम भी कर ले एक व्यक्ति को भी, तो परमात्मा को और अलग से खोजने की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि वही व्यक्ति द्वार बन जाएगा। चूंकि हम प्रेम नहीं कर पाते हैं, इसलिए हमें प्रार्थना करनी पड़ती है। और चूंकि हम प्रेम नहीं कर पाते हैं, इसलिए साधना करनी पड़ती है। चूंकि प्रेम नहीं कर पाते हैं, इसलिए फिर बहुत कुछ करना पड़ता है। प्रेम ही कोई कर ले, तो फिर कोई और उपाय, कोई विधि...। तो मीरा कह सकती है कि न कोई उपाय है, न कोई विधि है, न कोई ज्ञान है, न कोई ध्यान है। मीरा कह सकती है; क्योंकि प्रेम की उसे खबर मिल गई है। कबीर कह सकते हैं कि छोड़ो सब यज्ञ-योग, छोड़ो सब जप-तप, छोड़ो सब, उसका नाम ही काफी है। लेकिन उसका नाम उसके लिए ही काफी है, जिसके भीतर प्रेम की झलक आई हो। नहीं तो नाम बिलकुल काफी नहीं है। रटते रहो। 195
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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