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________________ अदृश्य, अश्राव्य व अस्पर्शनीय ताओ यह बड़े मजे की बात है। यह तो सूत्र बड़ा विरोधी है। क्योंकि जब तक कुछ दिखाई पड़े, तब तक जानना कि वह दिखाई नहीं पड़ा है। तब फिर वह दिखाई कब पड़ेगा? । जब कुछ भी दिखाई न पड़े, सिर्फ देखना मात्र रह जाए। और रिक्तता रह जाए चारों ओर, शून्य रह जाए। आंखें देखती हों और देखने को कोई आब्जेक्ट, कोई विषय न बचे, कोरा आकाश रह जाए। तब जानना कि वह दिखाई पड़ा है। वह सदा अनदिखा रह जाता है। 'देखें, फिर भी वह अनदिखा रह जाता है। लुक्ड एट, बट कैन नॉट बी सीन।' लुक्ड एट, उसकी तरफ देखा जा सकता है; लेकिन वह कभी दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन जो महत्वपूर्ण घटना घटती है, वह उसके दिखाई पड़ने से नहीं घटती, उसको देखने से घटती है। जो क्रांति घटित होती है, वह मेरी देखने की चेष्टा से घटित होती है, उसके दिखाई पड़ने से नहीं। इसलिए जब किसी ने कहा है कि हो गया उसका दर्शन, तो उसने यह नहीं कहा है कि वह दिखाई पड़ गया, उसने यही कहा है कि मेरी देखने की क्षमता शुद्ध हो गई और अब शून्य में भी मैं देख सकता हूं। दर्पण पूरा शुद्ध हो गया। अब उसमें कोई झलक नहीं बनती; खाली है। कोई आकार नहीं बनता, कोई प्रतिबिंब नहीं बनता; शून्य है। दर्पण जब इस शून्य की अवस्था में है, तो वह जिसका प्रतिबिंब बन रहा है उसमें-शून्य का वही अनदिखा, अदृश्य सत्य है। अगस्तीन ने कहा है, पूछो मत; क्योंकि जब तक तुम पूछते नहीं, मैं उसे जानता हूं। जैसे ही तुम पूछते हो, मैं मुश्किल में पड़ जाता हूं। पूछो मत। देखा है मैंने उसे; लेकिन तस्वीर उसकी मैं न बना सकूँगा। स्वभावतः, कोई भी पूछेगा कि अगर देखा है, तो तस्वीर तो बनाओ! थोड़ी कमोबेश होगी, नहीं पूरी बनेगी लेकिन कुछ तो खबर मिलेगी! तो सूफियों की किताब है : दि बुक ऑफ दि बुक, किताबों की किताब। वह कोरी किताब है, उसमें कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। दो सौ पन्नों की किताब है, बिलकुल खाली है। उसमें तस्वीर खींचने की कोशिश की गई है। उसको कोई प्रकाशक छापने को तैयार नहीं था। क्योंकि क्या छापिएगा? तो कोई हजार, डेढ़ हजार साल से वह किताब अप्रकाशित थी। अभी किसी एक हिम्मतवर प्रकाशक ने उसे प्रकाशित की। पर वह भी तभी प्रकाशित करने को राजी हुआ, जब एक सूफी फकीर उस पर दस पन्ने की भूमिका लिखने को राजी हुआ। अन्यथा उसको छापिएगा क्या? तो दस पन्ने की जो भूमिका है, वह उसका इतिहास है। सबसे पहले किसने वह किताब लिखी; फिर उसने किसको दी; फिर किसने उसे पढ़ी-पढ़ी। आप पढ़ सकते हैं उसे, यद्यपि पढ़ा कुछ भी न जाएगा। लेकिन करने जैसा प्रयोग है-कभी दो सौ खाली पेज पढ़ने की कोशिश! ठीक उतनी ही निष्ठा से, उतने ही भाव से, जैसे कोई दो सौ पन्नों के शब्द पढ़े। एक-एक लाइन, आंख गड़ा कर समझने की चेष्टा से! दो सौ पेज। आपका मन होगा कि उलटा दो शीघ्रता से। लेकिन इतिहास कहता है कि फलां फकीर ने उसे पढ़ा; बार-बार पढ़ा; लौट-लौट कर पढ़ा। किसी फकीर ने उसे जीवन में पचास बार पढ़ा। कोई फकीर उसे रोज सुबह जब तक पूरी न पढ़ लेता, तब तक भोजन न करता। क्या पढ़ते रहे होंगे वे लोग! उस सूने खाली कागज पर, अगर कोई दो सौ पन्नों तक आंख को गड़ा कर देखता रहे, तो आंखें भी सूनी और कोरी हो जाएंगी। वह ध्यान का एक प्रयोग हो गया। क्या पढ़िएगा? लेकिन अगर पढ़ेंगे ही, तो धीरे-धीरे भीतर के शब्द खो जाएंगे। धीरे-धीरे भीतर कुछ भी न बचेगा। जैसे कोरे पन्ने हैं, वैसा ही कोरा मन हो जाएगा। तो सूफियों में चलती रही है बात। लोग पूछते हैं : कुरान पढ़ा, ठीक है; बाइबिल पढ़ी, ठीक है; किताबों की किताब पढ़ी या नहीं? वह किताबों की किताब है। अगस्तीन कहता है कि उसे देखता तो हूं; लेकिन जब तुम पूछते हो, कैसा है? तो मुश्किल में पड़ जाता हूं। 173
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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