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________________ ऐंद्रिक भूख की नहीं-बाभि-केंद्र की आध्यात्मिक भूनव की फिक्र फिर मांगने लगता है। लेकिन शरीर को रखना है अगर...। और शरीर को वे रखे ही चले जाते हैं। खाना कम देने लगते हैं, पानी कम देने लगते हैं, विश्राम कम देने लगते हैं। सोचते हैं कि वे शरीर के साथ कोई बड़ी भारी विजय-यात्रा पर लगे हैं। वे सिर्फ नासमझी में लगे हैं। असल में, उनकी भी आकांक्षा यही थी कि शरीर को एक दफे तृप्त कर दें और वह सदा के लिए तृप्त हो जाए। वह नहीं हुआ, इसलिए वे परेशान हैं। आपकी नासमझी यह है कि आप सोचते हैं कि रोज-रोज तृप्त करके एक दिन ऐसी जगह पहुंच जाएंगे कि फिर तृप्त करने की जरूरत न रहेगी। उनकी भी नासमझी यही थी। लेकिन वे आपसे विपरीत हो गए। वे कहते हैं, अब हम तृप्त ही न करेंगे। क्योंकि यह तृप्ति तो पूरी होती नहीं। लेकिन दोनों की उलझन एक है। एक शरीर को तृप्त करके सोच रहा है कि परम तृप्ति पा लूंगा। एक शरीर की तृप्ति रोक कर सोच रहा है कि परम तृप्ति पा लूंगा। लेकिन दोनों को उस परम भूख का ही पता नहीं है, जो परम रूप से तृप्त हो सकती है। ध्यान रखें, क्षुद्र भूख क्षुद्र समय के लिए ही तृप्त होगी। जब पेट में भूख लगती है, तो यह कोई अल्टीमेट, कोई परम भूख तो नहीं है। जब प्यास लगती है, तो यह प्यास कोई चरम प्यास तो नहीं है। जितनी प्यास की हैसियत है, दो बूंद पानी डाल देते हैं, वह तृप्त हो जाती है। लेकिन दो बूंद की जितनी हैसियत है, उतनी देर में वह वाष्पीभूत होकर उड़ जाता है, प्यास फिर लग आती है। क्षुद्र भूख हो, तो क्षुद्र ही परिणाम होगा। परम भूख का हमें पता ही नहीं है। परम भूख एक ही है-अस्तित्व को जानने की, अस्तित्व के साथ एक होने की, अस्तित्व के उदघाटन की। उसे सत्य कहें, उसे परमात्मा कहें, जो नाम देना चाहें दें। लेकिन वह परम भूख लाओत्से कहता है, इंद्रियों से हटाएं अपनी चेतना को, डुबाएं चेतना को नाभि के निकट, मस्तिष्क से नीचे उतारें। और जिस दिन नाभि के पास आप पहुंच जाएंगे, उसी दिन उदघाटन होगा-एक नई प्यास! उसी प्यास का नाम प्रार्थना है, उसी प्यास का नाम ध्यान है। और उसी प्यास से जो खोज है, वह खोज धर्म है। और उस प्यास से चल कर जब आदमी उस सरोवर पर पहुंचता है जहां वह प्यास तृप्त होती है, तो उस सरोवर का नाम परमात्मा है। आज इतना ही। अब रुकें, जाएं न पांच मिनट। और कुछ लोग सम्मिलित होना चाहते हैं ऐसा लगता है, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाते। वे भी नीचे आ जाएं और सम्मिलित हों। और इतनी हिम्मत न हो, तो बैठ कर वहीं ताली दें, वहीं से सम्मिलित हों। 113
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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