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________________ ताओ उपनिषद भाग २ असल में, जो व्यक्ति अपने से बाहर दांव लगाना सीख लेगा, वह पागल हो जाएगा। जिसने अपना जुआ अपने से बाहर खेलना शुरू किया, वह पागल हो जाएगा। क्योंकि वह एक ऐसी चीज के लिए दांव लगा रहा है, जो मिल नहीं सकती। स्वभावतः जिसका मिलना असंभव है, जो नहीं मिल सकती। मिल भी जाए, तो भी नहीं मिलती। कितनी ही मिल जाए, तो भी छिन जाती है। लाओत्से का शिष्य था लीहत्जू। लीहत्जू ने लाओत्से से छुट्टी ली कि मैं कुछ दिन यात्रा पर जाना चाहता हूं। लाओत्से ने कहा, जाओ, लेकिन सम्हल कर जाना। क्योंकि यात्रा पर जाना तो आसान, लौटना बहुत मुश्किल है। लीहत्जू को कुछ समझ में नहीं आया। कम ही सौभाग्यशाली लोग हैं कि लाओत्से जैसे लोगों की बातें उनकी समझ में आ जाएं। सुन लेना एक बात, समझ लेना बिलकुल दूसरी बात है। लेकिन लीहत्जू भी जानता तो था कि समझ गया, क्योंकि शब्द तो सरल थे। शब्दों की सरलता बड़ी मुश्किल में डाल देती है; क्योंकि सरल होने से लगता है समझ गए। और सरल शब्दों को समझना इस जमीन पर सबसे ज्यादा कठिन है। क्योंकि उनका अर्थ भाषाकोश में नहीं होता, उनका अर्थ हमारे भीतर की जागरूकता में होता है। उसने लौट कर भी न पूछा लीहत्जू ने कि क्या मतलब? समझा कि कहता है लाओत्से कि जाना आसान, लौटना मुश्किल। समझ गए। लेकिन दस दिन बाद ही लीहत्जू लौट आया। और लीहत्जू से लाओत्से ने पूछा, बड़े जल्दी लौट आए? लीहत्जू ने कहा कि जैसे-जैसे जाने लगा, वैसे-वैसे समझ में आने लगा कि जितने कदम आगे बढ़ेंगे, उतना ही पीछे लौटना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए मैंने सोचा, इसके पहले कि फंसू, लौट चलूं। लाओत्से ने कहा, ऐसी क्या फंसावट आ गई? तो लीहत्जू ने कहा कि पहली सराय में ठहरा, सराय के मालिक ने मुझे बड़ा आदर दिया। फकीर था। पहली कुर्सी पर बिठा कर भोजन करवाया। नंबर एक उसकी सेवा की। नंबर एक के कमरे में उसे ठहराया। लाओत्से ने कहा, तो इसमें क्या तकलीफ हुई? लीहत्जू ने कहा, तकलीफ हुई? रात भर मैं सो न सका! अकड़ पैदा हो गई भीतर कि मैं भी कुछ हूं, मैं भी कुछ हूं। नंबर एक भोजन, नंबर एक के कमरे में ठहरना, सराय के मालिक का पैर छूना, और उसके छूते ही सारे यात्री मेरे प्रति आदर से भर गए। पता नहीं, उनका क्या हुआ, मैं रात भर नहीं सो सका। दूसरी सराय में पहुंचा। तो सराय के बाहर ही मैंने अपने कपड़े वगैरह ठीक कर लिए, तैयार हो गया हाथ-मुंह साफ करके। मेरी चाल बदल गई। जब मैं भीतर प्रवेश किया, तो मैं वही आदमी नहीं था, जो तुम्हारे चरणों को छोड़ कर गया था। दूसरा ही आदमी था। मैं खड़े होकर देख रहा था कि जल्दी सराय का मालिक आए, पैर छुए, पहले नंबर बिठाए, पहले नंबर के कमरे में ठहराए। कोई नहीं आया। भारी पीड़ा हुई। तृतीय श्रेणी के कमरे में ठहरने को मिला। फिर भी रात भर न सो सका। ___ तब मुझे बड़ी हैरानी हुई। प्रथम श्रेणी में ठहरा, तब न सो सका; तृतीय श्रेणी में सोया, तब न सो सका। मैंने सोचा, लौट चलना उचित है। खतरे में उतर रहा हूं। हालांकि मन कहता था कि एक सराय में और भी तो कोशिश करके देखो। हो सकता है, यह आदमी न पहचाना हो, अज्ञानी हो। दूसरी सराय में कोई पहचान ले। तभी तुम्हारे शब्द मुझे सुनाई पड़े कि जाना तो बहुत आसान यात्रा पर, लौटना बहुत मुश्किल है। तब मैं एकदम भागा, मैंने कहा अब रुकना खतरनाक है। कहीं ऐसा न हो कि मैं उतरता ही चला जाऊं।। हम सब ऐसे ही उतर जाते हैं। दौड़ अनेक तरह की है। वह हमें बुलाती चली जाती है। और जितने हम उतरते हैं, उतने हम फंसते चले जाते हैं। फिर लौटने के दरवाजे ही धीरे-धीरे भूल जाते हैं, रास्ता भी भूल जाता है कि कहां से हम आए थे। फिर एक ही रास्ता दिखाई पड़ता है। इस पड़ाव से दूसरा पड़ाव, दूसरे पड़ाव से तीसरा पड़ाव। और पीछे लौटने में विषाद भी मालूम पड़ता है। कोई भी लौटना नहीं चाहता। २। 106
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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