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________________ ध्यान की विधियां एक ही बार प्राप्त हो सकता है। और पुरुष बुनियादी इकाई यौन-कोशिका ही रहती ब्रह्मांड के हिस्से हो जाओगे। वह क्षण के संभोग के शिखर-अनुभव पर पहुंचने है। जब तुम पूरे शरीर में कंपते हो तो यह विराट सृजन का है। ठोस शरीरों की भांति से स्त्री और-और शिखर-अनुभव के लिए तुम्हारा और तुम्हारी प्रेमिका का ही मिलन तुम विलीन हो गए। और तुम तरल हो उत्तेजित होती है, तैयार होती है। तब बात नहीं रह जाता। तुम्हारे भीतर भी हर गए-एक-दूसरे में बहने लगे। मन खो कठिन हो जाती है। फिर कैसे इसे संभाला कोशिका अपनी विपरीत कोशिका से मिल गया, भेद खो गया। तुम एकरूपता को पा जाए? रही है। कंपन से इसका पता चलता है। गए। कंपो! तरंगायित होओ! अपने शरीर के यह कंपन पाशविक लगेगा, लेकिन मनुष्य यह अद्वैत है। और यदि तुम इस अद्वैत अणु-अणु को नाचने दो, और यह नृत्य एक पशु ही तो है, और इसमें कोई गलत को अनुभव न कर पाओ तो अद्वैत के सभी दोनों के लिए हो। प्रेमिका भी नाच रही हो, बात नहीं है। दर्शनशास्त्र व्यर्थ हैं। वे शब्द मात्र हैं। जब हर अणु तरंगायित हो रहा हो। तभी तुम इस कंपन में प्रवेश कने, और कंपते तुम अद्वैत के इस अस्तित्वगत क्षण को दोनों का मिलन हो सकता है, और तब समय अलग मत रहो। दर्शक मत बने जान जाओ, तभी उपनिषदों को समझ वह मिलन बौद्धिक नहीं होगा। वह तुम्हारी रहो, क्योंकि मन दर्शक है। अलग मत सकते हो। तभी तुम ऋषियों को समझ जैविक ऊर्जाओं का मिलन होगा। खड़े रहो! कंपन ही हो जाओ, कंपन ही सकते हो-कि जब वे ब्रह्मांडीय अद्वैत कंपना बिलकुल अद्भुत है क्योंकि जब बन जाओ। सब भूल जाओ और कंपन ही की, पूर्णता की बात करते हैं तो क्या कह अपने संभोग में तुम कंपते हो तो ऊर्जा पूरे - बन जाओ। ऐसा नहीं कि तुम्हारा शरीर रहे हैं। फिर तुम जगत से भिन्न नहीं होते, शरीर में बहने लगती है, ऊर्जा पूरे शरीर में कंप रहा है: तुम कंप रहे हो, तुम्हारे पूरे विजातीय नहीं होते। फिर अस्तित्व तुम्हारा तरंगायित होती है। तब शरीर की हर प्राण कंप रहे हैं। तुम कंपन मात्र ही बन घर बन जाता है। और जब यह भाव पैदा कोशिका उसमें भाग लेती है। हर कोशिका जाओ। फिर दो शरीर, दो मन नहीं रहते। हो जाए कि “अब अस्तित्व मेरा घर है," जीवित हो जाती है क्योंकि हर कोशिका शुरू-शुरू में दो कंपती हुई ऊर्जाएं होती फिर सब चिंताएं खो जाती हैं। फिर कोई काम-कोशिका है। हैं, लेकिन अंत में बस एक वर्तुल बचता दुख, कोई संघर्ष, कोई द्वंद्व नहीं रहता। जब तुम पैदा हुए थे, तो दो यौन है-दो नहीं। इसी को लाओत्सू ताओ कहते हैं, शंकर कोशिकाओं का मिलन हुआ और तुम्हारा इस वर्तुल में क्या होगा? एकः तुम अद्वैत कहते हैं। इसके लिए तुम अपना होना घटित हुआ, तुम्हारे शरीर का निर्माण एक अस्तित्वगत शक्ति के हिस्से हो शब्द चुन ले सकते हो, लेकिन गहन हुआ। वे दो काम-कोशिकाएं तुम्हारे शरीर जाओगे-सामाजिक मन के नहीं वरन आलिंगन के द्वारा इसे अनुभव करना में सब ओर हैं। वे प्रतिगुणित होती गईं अस्तित्वगत शक्ति के। तुम पूरे ब्रह्मांड के सरल है। जीवंत होओ, कंपो, और कंपन और प्रतिगुणित होती गईं, लेकिन तुम्हारी हिस्से हो जाओगे। उस कंपन में तुम पूरे मात्र ही बन जाओ।3 218
SR No.002367
Book TitleDhyanyog Pratham aur Antim Mukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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