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________________ देवमंदिर में जाकर ध्यान धरने लगी । कोढी ने मदिरावती को कहा, 'राजा ने अघटित कार्य सोचे समझे बगैर किया परंतु यदि तुझे सुखी होना है तो कोई समृद्धिवाले के साथ ब्याह कर । मेरी संगति से तो तुझे भी कोढ लग जायेगा। शादी बराबरीवालों की होती है। मैं तो दुःखी हूँ और तुझे यदि दुःखी करूंगा तो मेरा छूटकारा किस भव में होगा ?" कोढी के वचन सुनकर मदिरावती ने कहा, 'हे नाथ! ऐसा अयोग्य वचन बोलना आपको शोभा नहीं देता। अनंत पापराशी इकठ्ठी होती है तब स्त्री का अवतार मिलता है। इसमें यदि शील रहित होऊं तो भव भव में दुःखी बनूंगी। मैंने मन, वचन काया से और पिता की अनुमति से आपको स्वामी के रूप में स्वीकारा है। इसलिये आप ना कहेंगे तो मैं अग्नि की शरण लूंगी।' यह सूनकर कोढी संतोष पाकर सो गया । मंदिरावती पति के पैर दबाकर पंचपरमेश्वर का स्मरण करने लगी। इतने में एक देवी दिव्य शृंगार से सुशोभित पुरुष को लेकर आयी, मदिरावती को कहने लगी, 'तेरे पिता ने तेरी विटंबना फोगट में की है, यह देखकर दया से मैं तेरे पास आयी हूँ। मैं इस नगर की अधिष्ठाइका देवी हूँ और इस भाग्वान् पुरुष को लायी हूँ। वह तेरी आज्ञा अनुसार चलेगा, इस कोढी को छोड़कर मगधदेश के नरकेसरी राजा के इस पुत्र नरशेखर को तेरा पति बना । मैं तुम दोनों को जीवन पर्यंत सुखसंपत्ति दूंगी।' मदिरावती ने मन में धैर्य धारण करके दृढतापूर्वक कहा, 'हे माता ! आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, परंतु मैंने मेरे मातापिता और नगरजनों के सम्मुख इस कोढी पति का हाथ पकड़ा है तो अब दूसरे को किस प्रकार वरुं ? इस लोक में ओर परलोक में पुण्ययोग से मुझे इस कोढी पुरुष से सर्व मनोवांछित भोगसपत्ति मिलेगी, इसलिये कृपा करके मेरे भाई समान इस नरशेखर को राज्यलक्षी सहित उसके राज्य मे पहुँचा दो ।' मदिरावती के एसे वचन से क्रोधित बनी देवी ने उसे पैर से पकडकर आकाश में उछाला। गिर रही थी तब उसे त्रिशूल पर धर कर कहा, 'हे मूरख ! मेरे कहे अनुसार कर वरना मार डालूंगी।' कन्या ने निश्चय मन में करके देवी को कहा : 'में प्राणान्त के बाद भी शीलभ्रष्ट नहीं बनूंगी। मैंने कई बार जीवित और यौवन लक्ष्मी का सुख वगैरह इच्छित वस्तुएँ पायी हैं परंतु चिंतामणि समान निर्मल शील पाया नहीं हैं। इसलिये हे देवी ! यदि तू मारना चाहे तो मैं मरने के लिये तैयार हूँ परंतु तेरे कहे अनुसार दूसरा वर करूंगी नहीं। इस प्रकार कह कर मदिरावती मन से नवकार मंत्र स्मरण करने लगी। इतने में उसने सुख से अपने को खड़ा पाया तथा देवी और नरशेखर का खड़ा देखा नहीं । कोढी के बदले वस्त्राभरणयुक्त कोई अन्य पुरुष को देखकर मदिरावती मन में सोचने लगी, 'यह स्वप्न है क्या ? मेरा कोढी पति कहाँ गया?' ऐसा सोच रही थी कि उस पुरुष ने जिन शासन के चमकते हीरे २३९
SR No.002365
Book TitleJinshasan Ke Chamakte Hire
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani
PublisherVarjivandas Vadilal Shah
Publication Year1997
Total Pages356
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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