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________________ श्री उपदेश माला गाथा २०७-२१० विषय एवं मोह की भयंकरता शब्दार्थ - मनुष्य आदि दो पैर वाले, गाय, भैंस आदि चार पैर वाले, भौंरा आदि बहुत पैर वाले, सर्प आदि पैर रहित तथा धनवान, निर्धन अथवा पंडित और मूर्ख आदि सभी को बिना ही किसी अपराध के मृत्यु बिना थके या हताश हुए मार डालती है। मृत्यु किसी को नहीं छोड़ती ।।२०६।। न य नज्जड़ सो दियहो, मरियव्यं चाऽवसेण सव्येण । आसापासपरद्धो, न करेइ य जं हियं वज्झो ॥२०७॥ शब्दार्थ - किस दिन मरना है, इसे यह जीव नहीं जानता; परंतु सभी को एक न एक दिन अवश्य मरना है, इस बात को जानता है। फिर भी आशा रूपी पाश में परवश हुआ और मौत के मुख में रहा हुआ यह जीव, जो हितकारक धर्मानुष्ठान है, उसे नहीं करता ।।२०७।। ___ संज्झरागजलबुब्बूओवमे, जीविए य जलबिंदुचंचले । जुव्वणे य नइवेगसन्निभे, पाव जीव! किमियं न बुज्झसि ॥२०८॥ - शब्दार्थ - यह जीवन संध्या की लालिमा के समान क्षणिक है, जल तरंग पानी के बुलबुले के समान नाशवान है, दर्भ के अग्रभाग पर पड़े हुए जलकण के समान चंचल है। और जवानी नदी के वेग के समान थोड़े-से समय टिकने वाली है। फिर भी पापकर्म में रचापचा जीव नहीं समझता और अपना अहित ही करता रहता है ।।२०८॥ जं जं नज्जइ असुई, लज्जिज्जड़ कुच्छणिज्जमेयं ति। तं तं मग्गइ अंगं, नवरि अणंगोत्थ पडिकूलो ॥२०९॥ शब्दार्थ - जिस अंग को अपवित्र समझता है, जिस अंग को देखते ही लज्जा आती है और जिस घिनौने अंग से घृणा करता है; स्त्री के उसी जघन आदि अंगों की मूढ़ पुरुष अभिलाषा करता है। कामदेव के वश होकर जीव स्त्री के निन्दनीय अंगों को भी अतिरमणीय मानकर प्रकट रूप से प्रतिकूल आचरण करता है ।।२०९।। सव्यगहाणं पभवो, महागहो सव्वदोसपायट्टी। ___ कामग्गहो दुरप्पा जेणाऽभिभूयं जगं सव्वं ॥२१०॥ शब्दार्थ - सभी ग्रहों का उत्पत्तिस्थान, महान् उन्माद रूप, सभी दोषों का प्रवर्तक महाग्रह परस्त्रीगमन-आदि रूप कामग्रह है। काम रूपी महादुरात्मा ग्रह के उत्पन्न होने पर वह चित्त को भ्रम में डाल देता है, इसने सारे जगत् को प्रभावित व पराजित कर रखा है। इसीलिए काम रूपी महाग्रह को छोड़ना अत्यंत कठिन है।।२१०।। - 299
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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