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________________ स्वजन भी अनर्थकर, मित्र चाणक्य की कथा श्री उपदेश माला गाथा १':, करने में उतावले होते हैं; परंतु अपना काम बन जाने के बाद अपने मित्रों के खिलाफ बोलने लगते हैं; मित्रों के साथ वे द्रोह करने लगते हैं। जैसे चन्द्रगुस राजा के गुरु चाणक्यमंत्री ने पर्वत राजा से विश्वासघात किया।।१५०।। प्रसंगवश यहाँ चाणक्य की कथा दे रहे हैं चाणक्य की कथा चणक गाँव में चणी नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम चणेश्वरी था। दोनों जैनधर्म के अनुयायी और जिनेश्वरदेव के भक्त थे। एक दिन उनके एक पुत्र हुआ, जिसके जन्म लेते ही मुंह में सभी दांत थे। अतः उसका नाम चाणक्य रखा। एक दिन एक मुनि उसके यहाँ भिक्षा के लिए आये। अपने पुत्र को गुरुदेव के चरणों में रखकर चणी ने पूछा- "भगवन्! मेरे यहाँ जन्म से ही मुख में समस्त दंतपंक्ति वाला यह बालक हुआ है, इसका क्या कारण है? और इसका क्या प्रभाव होगा?" मुनिवर ने कहा- "यह इसके भविष्य में राजा बनने के लक्षण हैं।" इस पर माता पिता ने विचार किया कि “चिरकाल तक राज्यासक्ति रखने वाला व्यक्ति अवश्य ही नरक में जाता है। हमारा यह बालक राज्यासक्त होकर नरकभागी बनें, यह ठीक नहीं है।" अत: माता पिता ने पुत्र के दांतों को किसी चीज से घिस डाले।' एक दिन फिर जब मुनि उनके यहाँ आये तो उनसे चाणक्य के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा-"अब दांत घिस जाने के कारण राजा' तो नहीं, किन्तु राजमंत्री होगा; यह किसी व्यक्ति को प्रेरित करके स्वयं राज्यसंचालन करायेगा।" धीरे-धीरे चाणक्य बड़ा हुआ, सभी विद्याओं में प्रवीण हुआ। यौवन-अवस्था में पहुँचते ही मातापिता ने एक उत्तम ब्राह्मण की कन्या के साथ उसका विवाह किया। सांसारिक सुखोपभोग करते हुए चाणक्य अपना जीवन बिताने लगा। एक दिन चाणक्य की पत्नी सादे पोशाक पहनकर अपने भाई की शादी के मौके पर पीहर गयी। किन्तु सादे कपड़े और निर्धनता के कारण पिता के यहाँ किसी ने भी उसे योग्य आदर नहीं दिया। उस मौके पर उसकी दूसरी बहनें भी वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर वहाँ आयी हुई थी, भाई ने उनका बहुत आदर किया। सचमच, संसार में स्वार्थ का मूल कारण धन है। नीतिज्ञ कहते हैं जातिर्यातु रसातलं गुणगणास्तत्राऽप्यधो गच्छताम्, . . शीलं शैलतटात्पतत्वभिजन: संदह्यतां वह्निना। शौर्ये वैरिणी वज्रमाशु निपतत्वर्थोऽस्तु नः केवलम्, येनैकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे ॥१२५।। 252 =
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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