SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री उपदेश माला गाथा १२० सागरचन्द्रकुमार की कथा 'सत्पुरुष मन, वचन और काया इन तीनों में पुण्य रूपी अमृत से भरे रहते हैं। वे अपनी उपकार राशियों से तीनों लोक को प्रसन्न कर देते हैं। साथ ही दूसरों के परमाणु जितने गुण को वे पर्वत के समान मानकर नित्य अपने हृदय में उसे विकसित करते रहते हैं। सचमुच ऐसे संतपुरुष विरले ही होते हैं ||१०८॥ इसीलिए चाचाजी! कमलामेला से मिलाप आप जैसे परोपकारी सत्पुरुष ही करा सकते हैं। सागरचन्द्र की व्यथा सुनकर शाम्बकुमार ने उससे मिलाप कराना स्वीकार किया। तत्पश्चात् अपने विद्याबल से उसने द्वारिका के उद्यान से कमलामेला के घर तक सुरंग बनवाई और उस सुरंग के रास्ते से गुप्त रूप से उसे द्वारिका नगरी के उद्यान में ले आया। फिर नारदजी को वहाँ बुलाकर उनकी साक्षी से सागरचन्द्र के साथ शुभमुहूर्त में उसका पाणिग्रहण करा दिया। इधर कमलामेला के माता-पिता ने घर में अपनी कन्या को न देखकर सर्वत्र उसकी खोज करनी शुरू कर दी। वन में पहाड़ आदि पर जब कहीं भी उसका पता न लगा तो उन्होंने श्रीकृष्णजी से निवेदन किया- "स्वामिन्! आप सरीखे समर्थ नाथ होने पर भी मुझ अनाथ की कन्या को कोई अपहरण करके ले गया है। सुना है, किसी विद्याधर ने उसे उद्यान में ले जाकर छोड़ दी है।" यह सुनते ही श्रीकृष्णजी सेनासहित कन्या को छुड़ाने के लिए उस उद्यान की ओर रवाना हुए। श्रीकृष्णजी को आते देख नारद मुनि और शाम्बकुमार सामने आये। शाम्बकुमार ने उनके चरणों में नमस्कार किया और सारी घटना आद्योपान्त कह सुनाई। श्रीकृष्णजी ने अपने पुत्र की यह करतूत जानकर चुप्पी साध ली। इतने में ही नभसेन भी वहाँ आ पहुँचा। सागरचन्द्र ने नभसेन के चरणों में पड़कर क्षमा मांगी। परंतु नभसेन अन्यमनस्का होकर खड़ा रहा। उसने सागरचन्द्र को क्षमा नहीं दी। मन में वैर की गांठ बांध ली। अस्तु, सागरचन्द्र कमलामेला को लेकर अपने घर लौट आया और आनंद पूर्वक सुखोपभोग करते हुए जीवन बिताने लगा। एक बार भगवान् अरिष्टनेमि का उपदेश सुनकर सागरचन्द्र ने उनसे श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये। एक बार १२ व्रतों के उपरांत उसने श्रावकप्रतिमा के आराधन का निश्चय किया और उसकी आराधना के लिए स्मशानभूमि में जाकर कायोत्सर्ग करके खड़ा रहा। नभसेन इसी ताक में रहा करता था कि 'कब मौका मिले और कब मैं अपने वैर का बदला लूं।' नभसेन लोगों के मुख से सागरचन्द्र को स्मशान भूमि में गया जानकर वहीं पहुँच गया और अच्छा मौका देखकर उसने ध्यानस्थ खड़े सागरचन्द्र के मस्तक पर गीली मिट्टी की पाल 221
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy