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________________ ( १६ ) पापं लुम्पति दुर्गति दलयति व्यापादयत्यापदं । पुण्यं संचिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगताम् । सौभाग्यं विदधाति पल्लवयति प्रीति प्रसूते यशः । स्वर्ग यच्छति निर्वृति च रचयत्यहितां निर्मिता ॥६॥ अर्थ-श्री अरिहन्त परमात्मा की की हुई पूजा पाप को काट देती है, दुर्गति को मिटा देती है, आपत्ति को विनष्ट करती है, पुण्य को एकत्र करती है, लक्ष्मी की वृद्धि करती है, आरोग्य को पुष्ट करती है, सुख को देने वाली है, सन्मान-प्रतिष्ठा को बढ़ाती है, प्रीति बढ़ाती है, स्वर्ग देती है एवं मुक्ति-मार्ग को बनाती है ।। ६ ।। स्वर्गस्तस्य गृहाङ्गणं सहचरी साम्राज्यलक्ष्मीः शुभा । सौभाग्यादि-गुणावलिविलसति स्वरं वपुर्वेश्मनि ॥ संसारः सुतरः शिवं करतल-क्रोडे लुठत्यंजसा । यः श्रद्धाभर-भाजनं जिनपतेः पूजां विधत्ते जनः ॥१०॥ अर्थ-जो मनुष्य श्रद्धा युक्त चित्त से जिनेश्वर भगवान की पूजा करता है उसके घर का प्राङ्गन सर्वांग स्वर्ग के समान हो जाता है तथा कल्याण को करने वाली साम्राज्यरूपी लक्ष्मी उसके साथ रहने वाली स्त्री के समान हो जाती है एवं उसके अंग शरीर रूपी गृह में सौभाग्य तथा सम्पत्ति इत्यादि गुणों की पंक्ति होकर
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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