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________________ * भोगलालसा के [ ८८ ] जानन्नपि त्यजेन्नव, दुरन्तां भोगलालसाम् । सार्वभौमब्रह्मदत्त, इव पाश्चात्यजन्मनि ॥ १८ ॥ पदच्छेदः-जानन् अपि त्यजेत् न एव दुरन्तां भोगलालसाम् सार्वभौम ब्रह्मदत्त इव पाश्चात्य जन्मनि । अन्वयः-भोगलालसां दुरन्तां जानन् अपि पाश्चात्यजन्मनि सार्वभौम ब्रह्मदत्त इव नैव त्यजेत् । शब्दार्थः-दुरन्तां खराब अन्त वाली, भोगलालसां= भोगों की लालसा को, जानन् अपि जानते हुए भी, पाश्चात्यजन्मनि=पिछले जन्म में, सार्वभौम ब्रह्मदत्त इव चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की तरह, नैव नहीं, त्यजेत्= छोड़े। श्लोकार्थः-भोगों की लालसा को खराब अन्त वाली जानते हुए भी मानव, पिछले जन्म में चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की तरह नहीं छोड़ता है। संस्कृतानुवादः-दुरन्तां भोगेच्छां जाननपि पाश्चात्यजन्मनि चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त इव नैव परित्यजेत् ।। ८८ ॥ ( ८६ )
SR No.002337
Book TitleDharmopadesh Shloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1993
Total Pages144
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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