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________________ स्याद्वादबोधिनी-५२ 9 भावार्थ-प्रस्तुत श्लोक में वैशेषिक दर्शन की मान्यता का खण्डन युक्तिपूर्वक किया गया है कि 'प्रात्मा सर्वव्यापक नहीं है। न्यायदर्शन मत के अनुसार 'प्रात्मा व्यापक है'। जैसे-'प्राकाश सर्वत्र व्यापक है'। ऐसी व्यापकता स्वीकार करने पर आत्मा प्रमाण (प्राकार) की व्यापकता भी सिद्ध होती है। श्री जैनदर्शन-जैनमत में तो लोकाकाश, अलोकाकाश में भी यह नियम नहीं है । सामान्यतया विपुलावयववान् ही विपुल (अधिक) प्रदेश को व्याप्त करने में सक्षम होता है । वस्तुतः काल आदि तत्त्व. अपौद्गलिक होने के कारण निरवयव हैं । वे सर्वत्र उपलब्ध होते हैं। उसी प्रकार आत्मा को भी व्यापक मानना चाहिए तथा उस के परिमाण को भी व्यापक स्वीकार करना चाहिए-ऐसा वैशेषिक दार्शनिक कहते हैं । श्रीजैनदर्शन-जैनमत में आत्मा प्रदेशी है। शरीर मात्र परिणामवान् है। शरीर के अतिरिक्त धर्म, अधर्म आदि तत्त्वों में आत्मा की उपस्थिति नहीं होती। इस सन्दर्भ में दृष्टान्त प्रस्तुत करते हुए कहा है कि-जो गुण जहाँ दिखाई देते हैं, उनकी उपस्थिति (अर्थात् उन पदार्थों की उपस्थिति) वहीं होती है। जैसे-पृथ्वीगत रूप-रसगन्धादि गुण आकाश आदि में दृष्टिगोचर (उपलब्ध) नहीं होते। ठीक इसी प्रकार शरीर से बाहर आत्मा की
SR No.002335
Book TitleSyadwad Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinottamvijay Gani
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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