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________________ मनुष्य ही है समस्त व्यवस्था का सूत्रधार, संचालक एवं संवर्धक (1)एक वह रूप जब मन मनुष्य को चलाता है और मनुष्य बेभान होकर उसके पीछे-पीछे दौड़ता-भागता रहता है उस दिशा में पांचों इन्द्रियां जहां को शाह को चोर' ऐसी गति मनुष्य को क्रूर राक्षसत्व की ओर ले जाती है। राक्षस या देवता सबसे पहले इस मन में ही रहते हैं। मनुष्य अंधा बनकर जब काम, भोग, स्वार्थ में डूबता है और उसके लिये अन्याय, अनाचार व अत्याचार करता है तब वही मनुष्य राक्षस बन जाता है। (2) दूसरा रूप मन का वह है जब मनुष्य अपने जीवन की मर्यादाओं के पालन में अपने मन का पूरा सहयोग पाता है। इसका अर्थ है कि मन मनुष्य को नहीं चलाता, मनुष्य अपने मन को चलाता है। दोनों एकरूप बनकर उन्नति पथ पर गति करते हैं। जैसे रथ और रथी संयुक्त रह कर मार्ग में दौड़ते हैं, वही रूप मनुष्य और मन का हो जाता है। मानवीय गुणों से जीवन जब सज्जित होता है तब मनुष्यत्व का यथार्थ रूप प्रकट होता है। (3) मन का (या मन मनुष्य का) तीसरा रूप देवत्व का होता है। त्याग की श्रेणी में जब इतनी उच्चस्थ स्थिति बन जाती है कि मन और मनुष्य परमार्थी बन जाते हैं-उसके लिये अपना सर्वस्व तक त्याग देने को उद्यत हो जाते हैं तब वही मनुष्य देवता बन जाता है। जो सिर्फ देना जानता है वही तो देवता कहलाता है। यों मनुष्य ही अपने मन की गतिनीति के अनुसार राक्षस, मनुष्य और देवता के रूप धारण करता है। मनुष्य यदि अपने मन की शक्ति को सहेजे और मन को अपने साध्य की ओर उन्मुख बनावे तो पहले वह राक्षस का रूप धरना कतई बन्द कर देगा और मनुष्य अपने स्वभाव एवं स्वरूप को ज्वलन्त बनाने के लिये कटिबद्ध हो जाएगा। मानवता को सोने का सा निखार दे देगा। सोने का वह निखार जब कुन्दन की दमक लेता है तब मानना चाहिये कि मनुष्य का मन दिव्यता की दिशा में आगे बढ़ रहा है-देव बन रहा है। यह तथ्य है कि इस मानव के मन में, तन में व जीवन में अथ से इति तक, पौरुष से नियति तक, अनुभव से प्रतीति तक, कल्पना से कृति तक, अस्थिरता से स्थिति तक, गात से गति तक, मोह से मति तक, तिमिर से ज्योति तक पल-प्रतिपल चल रहा है देवासुर संग्राम । मनुष्य के मन की और मन के माध्यम से मनुष्य की शक्ति सर्वोपरि होती है। वह संकल्पबद्ध हो जाए तो वह असुरों का नाश कर सकता है, मनुष्यत्व को चमका सकता है और देवों का सिरमौर बन सकता है इसीलिये तो कहा है कि जिसका मन धर्म में लगा रहता है उसको देव भी नमस्कार करते हैं। (धम्मो मंगल मुक्किठें, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं णमंसति, जस्स धम्मे सया मणो-दशवैकालिक सूत्र 1/1)। करणीय यह है कि मन या चित्त की गति निरुद्ध न करके उसे संशोधित की जाए। उसकी गति में शुद्धता और पवित्रता लाई जाए, योग को 'चित्तवृत्ति संशोधः' का माध्यम बनाया जाए, निरोध का नहीं। स्व. आचार्य श्री नानेश का स्पष्ट मत रहा कि 'प्रचलित योग विद्याओं में योग को जिस रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें पातंजलि योग शास्त्र में परिभाषा दी गई है कि 'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः' अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध करना-यह परिभाषा पूर्ण नहीं है। क्योंकि चित्त की वृत्तियों का निरोध न तो संभव है और न ही आवश्यक। वृत्तियों की क्रियाशीलता निरन्तर बनी रहती 41
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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