SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लालायित रहते हैं, उसी भव को पाकर भी | 64) शरीर तो धर्म का साधन है यदि इसे भोगों यदि हम कर्म निर्जरा नहीं करते हैं तो का माध्यम बनाया तो यह रोगों का घर बन महामूढ़ता है। जाएगा। 52) यदि जीवन को धर्मानुसार जीने की कला | 65) इससे पहले कि यह शरीर जरा, व्याधि सीख ली जाय तो रोने की जरुरत नहीं आदि से ग्रस्त हो, धर्म को धारण कर पड़ेगी। लेना चाहिए। 53) मनुष्य अपने शरीर पर जमे मैल की सफाई | 56) संसार में धर्म के सिवाय, अन्य किसी से के लिए जितना तत्पर रहता है, यदि उतना स्वयं को जोड़ने पर दुःखों के सिवा और ही तत्पर वह आत्मा पर लगी कर्म रूपी कुछ भी हाथ नहीं आएगा। मैल की सफाई के लिए रहे तो उसका जीवन धर्म तो अंतःकरण के रूपांतरण की विधि सफल हो जाए। है। आडंबर का स्थान नहीं। 54) प्रतिक्रमण आत्मशुद्धि की सर्वश्रेष्ठ औषधि 68) धर्म जगत में प्रवेश करना है, तो शांत व मौन होना ही पड़ेगा। तभी उस परम का 55) आलस्य छोड़ना प्रगति की राह में पहला साक्षात्कार किया जा सकता है, जिसे सत्य कदम है। कहा जाता है। 56) धनवान, बलवान और रूपवान सर्वत्र | 69) सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अचौर्य सम्मान नहीं पाते,लेकिन ज्ञानवान सर्वत्र आदि प्रमुख सिद्धांतो की राह पर निरंतर सम्मान पाता है। चल पाना तभी संभव होगा, जब छोटे57) प्रमाद छोड़ना जैनत्व की पहचान है। छोटे नियमों का पालन भी कठोरता पूर्वक किया जाए। 58) प्रत्येक जीव को जीने का अधिकार है, लेकिन 70) नशा व भोग मनुष्य के पतन के मूल कारण संयम के बिना जीने का कोई अर्थ नहीं है। बुजुर्गों का अपमान, कल अपने दुर्भाग्य 71) मर्यादा व धर्म एक ही सिक्के के दो पहलू का कारण बनेगा। 60) संयम से जीना ही वास्तविक जीवन है । 72) जिनमत, बहुमत से अधिक महत्वपूर्ण है। 61) हिंसा व विध्वंस में मनुष्य की उत्सुकता का मूल कारण है, अंतर की पशुता से मुक्त न 73) सेठ नही, श्रेष्ठ बनने का प्रयास करो | होना । काम, क्रोध, मद व लोभ आदि | 74) परिवार एक ऐसा भवन है जिसकी नींव मे पाशों से बंधा मनुष्य पशुवत् है। धैर्य, त्याग, सेवा और ममतामयी नारी 62) संसार के सारे संबंध स्वप्न की तरह झूठे तथा शिखर में पुरूष का पराक्रम है । चमचमाता हुआ शिखर भले ही आकाश को छू रहा.हो मगर वह टिका नींव के पत्थर 63) जब तक शरीर के प्रति आसक्ति नहीं टूटती, पर ही है। नींव हिली तो शिखर चकनाचूर तब तक आत्म स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। हो जाएगा। 65
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy