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________________ 85. बड़ों की बात को स्वीकार करना भी | 99. जिसके पास नमस्कार है, उसका जंगल नमस्कार में आता है। में भी मंगल हो जाता है। 86. बड़ों के आगमन पर खड़े होना भी नमस्कार बड़ हाना मा नमस्कार | 100. बिना नमस्कार से मानव की पहचान में आता है। 'घमण्डी' के रूप में होती है। 87. विनय से ज्ञान वृद्धि होती है और ज्ञानी के 101. बिना नमस्कार (विनय) से साधक को सड़े विनीत बनने पर ज्ञान की शोभा महिमा कान वाली कुत्तिया की उपमा दी गई है, बढ़ती है। जो जहाँ जहाँ जाती है, तिरस्कृत ही 88. विनयवान कटु वचनों से अन्यों को दुःखी होती है। नहीं करता है। 102. जैसे चावलों को छोड़कर विष्टा का सेवन 89. तीर्थंकर परमात्मा भी दीक्षा लेते समय सिद्ध करता है सूअर- वैसे ही अविनीत गुणों भगवन्तों को नमस्कार करते है | “सिद्धाणं को छोड़कर अवगुणों को ग्रहण करता है। नमो किच्चा" | 90. नमस्कार से ही इन्सान भगवान बनने की 103. विनय से कठोर प्रकृति के गुरु को मृदु सीढ़ी चढ़ता है। बनाया जा सकता है, और अविनय से मृदु को भी कठोर बनाया जा सकता है। (बन 91. घमण्डी बनने से बचाता है - नमस्कार। सकता है)। 92. सम्यगज्ञान के प्रति श्रद्धा बहुमान भक्ति व आत्मकल्याण में हेतु मानना ज्ञान विनय है। 104. मानव का प्रथम संस्कार नमस्कार है। 93. मोक्ष मार्ग व सम्यक दर्शन को चारित्र की 105. श्रद्धा - चारित्र व उपकारी की दृष्टि से नींव के समान श्रद्धापूर्वक मानना ही दर्शन, नमस्कार करना ही चाहिये, जबकि अविनय विनय है। तो जीव मात्र का नहीं करना चाहिए। 94. शक्ति अनुसार पापों का त्याग करना, व्रत | 106. विनय से (नमस्कार से) जीवों में जुड़ाव धारण करना ही चारित्र विनय है (देश रहता है, परस्पर सहयोग - वात्सल्य के चारित्र) भाव बढ़ते रहते हैं। 95. नमस्कार भाव तीनों जगत् में स्वामित्व का 107. बिना नमस्कार के आपका जीवन निःसार बीज है। है - असार है। 96. साधक को सदा नमस्कार-विनय गुण का 108. परस्पर जीवों में वैर की परम्परा को तोड़ता आचरण करना ही चाहिए। है, सभी जीवों के प्रति आत्म दृष्टि से देखता 97. बिना नमस्कार से किसी को कुछ नहीं हैं। सार यह है कि 'नमस्कार करना' मानव मिलता। को जिनेन्द्र देव द्वारा मिला शुभ उपहार 98. नमस्कार एक मीठा प्याला है, जो सबको है इसे संभाले, इसे दैनिक प्रयोग करते मीठा लगता है। रहे। शाला
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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