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________________ करते हैं। मरजीवा (गोताखोर) मरने का भय छोड़कर परमगुणी परमात्मा । समुद्र की गहराई से मोती लाते हैं ना ? बस-यही भूतकाल की पर्यालोचना में देखेंगे तो अनंतकाल रहस्य हमारी आत्मा का है। से मेरी आत्मा बहिर ही रही । अब इस बुद्धि से आत्मिक गुणों को प्राप्त करने हेतु आत्मा में ही निर्णय कर जड़ता की जकड़न को तोड़/छोड़ अंदर शोध/खोज करनी होगी । भाई ! अनंतकाल अन्तरात्मा बन । आत्मिक सुख का मार्ग खुल गया बीत गया, बाहरी पुद्गलों में सुख ढूंढते-ढूंढते, पर ! समझ । सुख नहीं मिला । तो अब क्या, इस भव में पुद्गल कषाय आत्मा ही आठों में सबसे भयंकर है । कषायों से मिल सकेगा ? उत्तर नहीं। की भूतावल/तूफान से आत्मा को कौड़ी की कीमत नव तत्त्वों में जीव की शंका करने वाला ही तू खुद का भी नहीं रहने देता है । जीव, अब कषायजीव है । शरीर जड़ है । इन दोनों के मिश्रण का त्याग, विषय-त्याग, विकार-त्याग, समझ लेयह दृश्य है। बन गया तू महाभाग | तीर्थंकर आचार्य पुत्रवत महा-उपकार मान उन पूज्य तीर्थंकरों का, गणधरों संसार का पूज्य बन जायेगा। का, पूज्य ज्ञानी गुरु भगवंतो का, कि तुझे अनंत प्रबल पुण्य से यह मार्ग मिल गया । अब आगे बढ़ ? 16) दण्डक-चौबीस : दंडक क्या है ? जहाँ जीव अपने कर्मों का दण्ड भोगने पैदा होता है, उसे बैठ मत। दंडक कहा है । सिद्धों को दण्डकातीत माना है । बैठ गया सो बैठ गया, सो गया सो खो बेड़ी चाहे लोहे की हो या सोने की हो, है तो बेड़ी गया । प्रथम तत्त्व जीव और अन्तिम तत्त्व मोक्ष । ही ना। वैसे ही शुभ या अशुभ, है तो कर्मों का प्रथम जीव से नवमें मोक्ष के बीच तत्त्वों में से ही भोग। चोर तत्त्व घटेंगे/भागेंगे । लोहा ही लोहे को काटता सर्वश्रेष्ठ वही दंडक, जहाँ कर्मों का फल तो भोग है ना । संवर से आश्रव । पुण्य से पाप/है/ना/ रहा हो, परंत नये कर्म नहीं बांध रहा हो। बस उपाय, अनंत ज्ञानी का छोटा (निर्जरा से बंध) इतनी छोटी सी बात समझ में आ गई तो सब आ उपाय, हमें समझकर प्रथम तत्त्व (जीव) से नौवें तत्त्व मोक्ष में जाना है। बस इसी की विचारणा रुचि गया समझ में। अन्तःकरण में जब जम जायेगी, विकास के मार्ग में मनुष्य को ही सर्वश्रेष्ठ क्यों माना? राजा है, सेठ पैर उठते देर नहीं लगेगी? है, डॉक्टर है, वकील है, जज है, नेता है, पता भाग्यशाली - भाग्य का सदुपयोग कर, नर से नारायण नहीं कौन-कौन से पद हैं, डिग्रियाँ हैं, मगर इन बन । धन्य धन्य हो जायेगा तू । सबसे मनुष्य के दण्डक की महिमा नहीं बताई है। चार विभाग हैं - चौबीस दण्डकों के 15) आत्मा-आठ : आत्मा से मूल्यवान कोई वस्तु नहीं है, यह अमूल्य है । जड़ खरीदा जा सकता 1) नरक है वहाँ दुःख ही दुःख प्रधान । है, चेतन नहीं । ज्ञानादि गुणों में रमण करे वह 2) तिर्यंच है वहाँ - भूख, आहार ही आहार-आहार आत्मा । तीन भेद-बाह्य आत्मा, अंतरात्मा व परमात्मा प्रधान । | बाह्य में रचा-पचा प्रथम बहिर-आत्मा है । सम्यक दृष्टि बन चुका, आत्मा के स्वरूप को समझ चुका, 3) मनुष्य है वहाँ-जहाँ धर्म प्रधान व विवेक प्रधान । श्रद्धा से भर चुका, अन्तरात्मा और पूर्ण परम पद- | 4) देव है वहाँ-जहाँ भोग प्रधान (लोभ प्रधान)।
SR No.002325
Book TitleVinay Bodhi Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaymuni
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sangh
Publication Year2014
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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