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________________ होती है। शराब पीकर बेभान लोगों को माँ-बहिन का, अपने-पराये का या सेठ-नौकर का खयाल नहीं रहता। मुर्दे के माफिक मैदान में पड़े मदिरा पीने वाले के मुह में कुत्ते पेशाब कर देते हैं। आम रास्ते में भी वह भान भूलकर नंगा होकर लेटता है और सहज ही अपने गूढ़ अभिप्राय-छिपे विचार बतला देता है। चाहे जैसा सुन्दर चित्र हो, फिर भी उस पर काजल डालने से उसकी शोभा नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार शराब पीने वाले की कीति, बुद्धि और लक्ष्मी चली जाती है। जैसे दिमाग में भूत घुस गया हो वैसे वह धुनता है। शोकमग्न हो गया हो, इस प्रकार रुदन करता है तथा दाहज्वर हो गया हो उस तरह वह जमीन पर लेटता है। मदिरा हलाहल विष जैसी है। वह शरीर के अवयवों को शिथिल कर देती है। अग्नि के एक तिनके से घास का विशाल ढेर जल जाता है, उसी तरह मदिरापान से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, दया और क्षमा इन सबका नाश हो जाता है। सब दोषों का कारण मदिरा है और सब प्रकार की आपत्ति का कारण भी मदिरा है, इसलिए रोगातुर मनुष्य जैसे अपथ्य का त्याग करता है वैसे आत्म हितचिन्तकों को मदिरापान का त्याग करना चाहिये । मांसत्याग करने के बारे में प्राणियों का नाश कर जो मांस खाने की इच्छा करता है वह दया नाम के धर्मवृक्ष के मूल को उखाड़ डालता है। जो निरन्तर मांस खाता है और दया पालने की इच्छा करता है वह आग में बेल उगाने की इच्छा करता है। अर्थात् मांस खाने वाले में दया नहीं टिकती। प्राणियों को मारने वाला, मांस बेचने वाला, मांस पकाने वाला, खाने वाला, खरीदने वाला, अनुमोदन करने वाला और देने वाला ये सब हिंसा करने वाले ही हैं। अपने मांस की श्रावकवत दर्पण -२२
SR No.002324
Book TitleShravakvrat Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherSwadhyaya Sangh
Publication Year1988
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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