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________________ द्विपदयोनि औद देवयोनि के भेद तत्र द्विपदा' देवमनुष्यराक्षसा इति। तत्रोत्तरोत्तरेषु देवता, उत्तराधरेषु मनुष्याः। अधरोत्तरेषु पक्षिणः अधराधरेषु राक्षसाः भवन्ति । तत्र देवाश्चतुर्णिकायाः-कल्पवासिनः, भवनवासिनः, व्यन्तराः, ज्योतिष्काश्चेति। __ अर्थ-द्विपदयोनि के देव, मनुष्य, पक्षी और राक्षस ये चार भेद हैं। उत्तरोत्तर प्रश्नाक्षरों (अ क ख ग घ ङ) के होने पर देव; उत्तराधर प्रश्नाक्षरों (च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण) के होने पर मनुष्य; अधरोत्तर प्रश्नाक्षरों (त थ द ध न प फ ब भ म) के होने पर पक्षी और अधराधर प्रश्नाक्षरों (य र ल व श ष स ह) के होने पर राक्षस योनि होती है। इनमें देवयोनि के चार भेद हैं-कल्पवासी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी। विवेचन-दो पैर वाले जीव-देव, मनुष्य, पक्षी और राक्षस होते हैं। लग्न के अनुसार कुम्भ, मिथुन, तुला और कन्या ये चार द्विपद राशियाँ क्रमशः देव, मनुष्यादि संज्ञक हैं, लेकिन मतान्तर से सभी राशियाँ देवादि संज्ञक हैं। पूर्वोक्त विधि से लग्न बनाकर ग्रहों की स्थिति से देवादि योनि का निर्णय करना चाहिए। प्रस्तुत ग्रन्थ के अनुसार प्रश्नकर्ता से समय के अनुसार पुष्प, फलादि का नाम उच्चारण कराके पहले आलिंगित, अभिधूमित और दग्धकाल में जो पिण्ड बनाने की विधि बतायी गयी है, उसी के अनुसार बनाना चाहिए, परन्तु यहाँ इतना ध्यान और रखना चाहिए कि प्रश्नकर्ता के नाम के वर्णांक और स्वरांकों को प्रश्न के वर्णांक और स्वरांकों में जोड़कर तब पिण्ड बनाना चाहिए। इस पिण्ड में चार का भाग देने पर एक शेष में देव, दो में मनुष्य, तीन में पक्षी और शून्य में राक्षस जानना चाहिए। उदाहरण-जैसे मोहन ने प्रातः काल ८ बजे प्रश्न पूछा। आलिंगितकाल का प्रश्न होने से फल का नाम जामुन बताया। इस प्रश्नवाक्य का विश्लेषण किया तो (ज् + आ + म् + उ + न् + अ) यह हुआ। 'वर्ग संख्या सहित स्वरों और वर्णों के ध्रुवांक' चक्र के अनुसार (६ + म्११ + १०) = ६+ ११ + १० = २७ वर्णांक, तथा इसी चक्र के अनुसार स्वरांक (आ३ + अ२ + उद्द) = ३ + २ + ६ = ११; मोहन इस नाम के वर्णों का विश्लेषण (म् + ओ + ह् + अ + न् + अ) यह हुआ। यहाँ पर भी 'वर्ग संख्या सहित स्वरों और वर्गों के ध्रुवांक' चक्र के अनुसार वर्णांक = (म्११ + १२ + न्१०) = ११ + १२ + १० = ३३; स्वरांक = (अ२ + अ२ + ओ१४) = २ + २ + १४ = १८ । नाम के वर्णांकों को प्रश्न के वर्णांकों के साथ तथा नाम के स्वरांकों को प्रश्न के स्वरांकों के साथ योग कर देने पर स्वरांक और वर्णांकों का परस्पर गुणा करने से पिण्ड होता है। अतः २७ + ३० = ५७ वर्णांक, स्वरांक + + + १. के. प्र. र. पृ. ५६-५७ । के प्र. सं. प्र. १८ । ग. म. पृ. ७। २. तुलना-प्र. कौ. प्र. ७। शा. प्र. पृ. २०।। ३. "मृगमीनौ तु खचरौ तत्रस्थौ मन्दभूमिजौ। वनकुक्कुटकाकौ च चिन्तिताविति कीर्तयेत्॥ इत्यादि-'ज्ञ' प्र. पृ. २१॥ ४. “देवाश्चतुर्णिकायाः”–त. सू. ४/१। “देवगतिनामकर्मोदये सत्यभ्यन्तरे हेतौ बाह्यविभूतिविशेषैर्वीपाद्रिसमुद्रादिषु प्रदेशेषु यथेष्टं दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः”–स. सि. ४।१। केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि : ६५
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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