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________________ आगामी-भावी फल का निर्णय करना इस सिद्धान्त का काम है। इन तीनों सिद्धान्तों की तुलना करने पर लग्न और स्वर वाले सिद्धान्तों की अपेक्षा प्रश्नाक्षरवाला सिद्धान्त अधिक मनोवैज्ञानिक है तथा पहलेवाले दोनों सिद्धान्त कभी कदाचित् व्यभिचरित भी हो सकते हैं। जैसे उदाहरण के लिए मान लिया कि सौ व्यक्ति एक साथ एक ही समय में एक ही प्रश्न का उत्तर पूछने के लिए आएँ, तो इस समय का लग्न सभी व्यक्तियों का एक ही होगा तथा उस समय का स्वर भी एक ही होगा। अतः सबका फल सदृश ही आएगा। हाँ, एक-दो सेकिण्ड का अन्तर पड़ने से नवांश, द्वादशांशादि में अन्तर भले ही पड़ जाए, पर इस अन्तर से स्थूल फल में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इससे सभी के प्रश्नों का फल हाँ या ना के रूप में आएगा। लेकिन यह सम्भव नहीं है कि सभी व्यक्तियों के फल एक सदृश हों; क्योंकि किसी का कार्य सिद्ध होगा, किसी का नहीं भी हो। परन्तु तीसरे-प्रश्नाक्षरवाले सिद्धान्त के अनुसार सभी व्यक्तियों के प्रश्नाक्षर एक नहीं होंगे; भिन्न-भिन्न मानसिक परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न होंगे। इससे फल भी सभी का पृथक्-पृथक् आएगा। - जैन प्रश्नशास्त्र में प्रश्नाक्षरों से ही फल का प्रतिपादन किया गया है। इसमें लग्नादि का प्रपंच नहीं है। अतः इसका मूलाधार मनोविज्ञान है। बाह्य और आभ्यन्तरिक दोनों प्रकार की विभिन्न परिस्थितियों के अधीन मानव मन की भीतरी तह में जैसी भावनाएँ छिपी रहती हैं, वैसे ही प्रश्नाक्षर निकलते हैं। मनोविज्ञान के पण्डितों का कथन है-मस्तिष्क में किसी भौतिक घटना या क्रिया का उत्तेजन पाकर प्रतिक्रिया होती है। यही प्रतिक्रिया मानव के आचरण में प्रदर्शित हो जाती है। क्योंकि अबाधभावानुषंग से हमारे मन के अनेक गुप्त भाव भावी शक्ति, अशक्ति के रूप में प्रकट हो जाते हैं तथा उनसे समझदार व्यक्ति सहज में ही मन की धारा और उससे घटित होनेवाले फल को समझ लेता है। आधुनिक मनोविज्ञान के सुप्रसिद्ध पण्डित फॉयड के मतानुसार मन की दो अवस्थाएँ हैं-सज्ञान और निर्ज्ञान। सज्ञान अवस्था अनेक प्रकार से निर्ज्ञान अवस्था के द्वारा नियन्त्रित होती रहती है। प्रश्नों की छान-बीन करने पर इस सिद्धान्त के अनुसार पूछे जाने पर मानव विज्ञान अवस्था विशेष के कारण ही झट उत्तर देता है और उसका प्रतिबिम्ब सज्ञान मानसिक अवस्था पर पड़ता है। अतएव प्रश्न के मूल में प्रवेश करने पर संज्ञात इच्छा, असंज्ञात इच्छा, अन्तर्जात इच्छा और निति इच्छा ये चार प्रकार की इच्छाएँ मिलती हैं। इन इच्छाओं में से संज्ञात इच्छा बाधा पाने पर नाना प्रकार से व्यक्त होने की चेष्ट करती है तथा इसी के कारण रुद्ध या अवदमित इच्छा भी प्रकाश पाती है। यद्यपि हम संज्ञात इच्छा के प्रकाशकाल में रूपान्तर जान सकते हैं, किन्तु असंज्ञात या अज्ञात इच्छा के प्रकाशित होने पर भी हठात् कार्य देखने से उसे नहीं जान सकते। विशेषज्ञ प्रश्नाक्षरों के विश्लेषण से ही असंज्ञात इच्छा का पता लगा लेते हैं तथा उससे सम्बद्ध भावी घटनाओं को भी जान लेते हैं। फ्रॉयड ने इसी विषय को स्पष्ट करते हुए बताया कि मानव मन का संचालन प्रवृत्तिमूलक शक्तियों से होता है और ये प्रवृत्तियाँ सदैव उसके मन को प्रभावित करती हैं। मनुष्य के व्यक्तित्व का अधिकांश भाग अचेतन मन के रूप में है, जिसे प्रवृत्तियों का अशान्त ३२ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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