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________________ और वियोजक बताये गये हैं। सरल त्रिकोणमिति के द्वारा कोण नापने में अत्यन्त सुविधा होती है तथा कीणमान भी ठीक निकलता है। प्राचीन जैन ग्रन्थों में वृत्त की परिधि में व्यास का भाग देने से कोणमान निकाला गया है; पर बाद के जैन गणकों ने यन्त्रों के द्वारा भुज एवं कर्ण के सम्बन्ध से कोणमान स्थिर किया है। 'गणितसारसंग्रह' में ऐसी कई एक क्रियाएँ हैं जिनमें भुज, कर्ण एवं कोण के सम्बन्ध से ही कोणविषयक नियम निर्धारित किये गये हैं। कुछ आचार्यों ने भुज और कर्ण की निष्पत्ति सिद्ध करने के लिए अनेक नियम बताये हैं। इन्हीं नियमों से अक्षक्षेत्र सम्बन्धी अग्रा, क्रान्ति, लम्बांश, भुजांश एवं समशंकु आदि का प्रतिपादन किया है। चापीय त्रिकोणमिति द्वारा ग्रह, नक्षत्र आदि के अवस्थान और उनके पथ का निर्णय होता है। यदि कोई समतल कोण वृत्त का केन्द्र भेद कर इसे दो खण्डों में विभक्त करे, तो प्रत्येक वृत्तक्षेत्र महावृत्त कहलाता है। जैनाचार्यों ने ग्रहों की स्पर्शरेखा, छेदनरेखा, कोटिस्पर्शरेखा एवं कोटिछेदनरेखा आदि सिद्धान्तों का प्रतिपादन त्रिकोणमिति से किया है। प्रतिभा-गणित-इसके द्वारा जैनाचार्यों ने ग्रहवृत्तों के परिणामन का कथन किया है। अर्थात् किसी महद्भूत वाले ग्रह का गणित करने के लिए कल्पना द्वारा लघुवृत्त में परिणामन करानेवाली प्रक्रिया का नाम ही प्रतिभा है। यद्यपि इस गणित के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप से ग्रन्थ नहीं मिलते, फिर भी ज्योतिष्चक्र एवं यन्त्रराज में परिणामन सम्बन्धी कई सिद्धान्त दिये गये हैं। कदम्बप्रोतवृत्त, मेरुछिन्नप्रोतवृत्त, क्रान्तिवृत्त एवं नाड़ीवृत्त आदि लघु और महत्तों के परिणामन की नाना विधियाँ बतायी गयी हैं। श्रीधराचार्य विरचित ज्योतिर्ज्ञानविधि में भी इस परिणामन विधि का संकेत मिलता है। प्रतिभा की प्रक्रिया द्वारा ग्रहों की कक्षाएँ दीर्घवृत्त, परिवलय, वलय एवं अतिपरिवलय के रूप में सिद्ध की जाती हैं। प्राचीन सूची और वलय, व्यास एवं परिधि सम्बन्धी प्रक्रिया का विकसित रूप ही यह प्रतिभागणित है। 'गणितसारसंग्रह' के क्षेत्रसार व्यवहाराध्याय में आधार समानान्तर भूतल से छिन्न सूची क्षेत्र प्रदेश को वृत्तत्व स्वीकार किया गया है। उपर्युक्त सिद्धान्त के ऊपर यदि गणितदृष्टि से विचार किया जाय, तो यह सिद्धान्त भी समसूच्यन्तर्गत प्रतिभागणित का है। इसी प्रकार समतल शंकुमस्तक क्षेत्र व्यवस्था भी प्रतिभागणित के अन्तर्गत है। पंचांगनिर्माणगणित जैन पंचांग की प्रणाली बहुत प्राचीन है। जिस समय भारतवर्ष में ज्योतिष के गणित ग्रन्थों का अधिक प्रचार हुआ नहीं था, उस समय भी जैन पंचांगनिर्माण सम्बन्धी गणित पल्लवित और पुष्पित था। प्राचीन काल में गगनखण्डात्मक ग्रहों की गति लेकर पंचांग प्रणाली शुरू हुई थी, पर उत्तरवर्ती आचार्यों ने इस प्रणाली को स्थूल समझकर सुधार किया। प्राचीन जैन प्रणाली में एक वीथी में सूर्य का जो भ्रमण करना माना जाता था, उसे उन्होंने अहोरात्र वृत्त मान लिया और इसी के आधार पर से आकाशमण्डल में नाड़ीवृत्त, क्रान्तिवृत्त, मेरुछिन्नप्रोतवृत्त एवं अयनप्रोतवृत्तादि २४ महवृत्त तथा कई-एक लघु वृत्त माने गये। २२ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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