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________________ अपने-अपने पक्ष में ही प्रतिबद्ध परस्पर निरपेक्ष सभी नय (मत) मिथ्या हैं; असम्यक हैं, परन्तु ये ही नय जब परस्पर सापेक्ष होते हैं; तब सत्य एवं सम्यक् बन जाते हैं। 111. नयज्ञ प्रणत नयास्तव स्यात् पदलांछना, इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः । । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1898 ] - समन्तभद्र-स्वयंभू स्तोत्र, विमलनाथस्तव 65 जिसतरह रसों के संयोग से लोहा अभीष्ट फल को देनेवाला बन जाता है; उसीतरह नयों में 'स्यात्' शब्द लगाने से भगवान के द्वारा प्रतिपादित नय इष्ट फल को देते हैं। इसीलिए अपना हित चाहनेवाले लोग भगवान् के समक्ष प्रणत हैं। 112. अज्ञानी नर्कगामी तिव्वाभितावे नराए पडंति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1917] - सूत्रकृतांग 1/503 अज्ञानी जीव अत्यधिक अन्धकार एवं तीव्र अभितापवाले नरक में पड़ते हैं। 113. रौद्र परिणामी पावाइं कम्माइं करेंति रूद्दा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1917] - सूत्रकृतांग 1/5AR रौद्र परिणामी जीव पापकर्म करते हैं। 114. नारकीय जीव दुःखी दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेण । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 85
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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