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________________ अपार संसार रूप सागर में (भटकते) जन्तुओं को मनुष्यत्व मिलना दुर्लभ है, उसमें भी अनर्थ को हरनेवाला सद्धर्मरूपी रत्न मिलना और भी दुर्लभ है । 441. धर्म, अर्थ-काम-मोक्षदायक धनदो धनार्थिनां धर्म्मः कामदः सर्वकामिनाम् । धर्म एवाऽपवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2731] धर्मबिन्दु 1/2 धर्म, धन चाहनेवाले प्राणियों को धन देता है, काम चाहनेवाले को काम देता है और परम्परा से मोक्ष को देनेवाला भी एकमात्र धर्म ही है । 442. मन्दबुद्धि धर्म बीजं परं प्राप्य मानुष्यं कर्मभूमिषु । न सत्कर्म कृषावस्य प्रयतन्तेऽल्पमेधसः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2731] योगदृष्टि समुच्चय - 83 कर्मभूमि में उत्तम धर्मबीज रूप मनुष्यजीवन प्राप्त कर मन्दबुद्धि पुरुष सत्कर्म रूपी खेती करने में प्रयत्न नहीं करते अर्थात् दुर्लभ मनुष्य जीवन का सत्कर्म करने में उपयोग नहीं करते । - 443. सज्जन- प्रशंसा वपनं धर्मबीजस्य, सत्प्रशंसादितद्गतम् । तच्चिन्ताद्यङ्कुरादि स्यात् फलसिद्धिस्तु निर्वृत्तिः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 4 पृ. 2431 ] B धर्मबिन्दु 2/1 सत्पुरुष की प्रशंसा करना, यह धर्मबीज का आरोपण है । धर्म - चिन्तन आदि उसके अड्डर है और मोक्ष उसकी फल- सिद्धि है | 444. धर्मानुकूल आजीविका धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 168
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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