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________________ 309. कोयला होत न उजरा तओ दुसन्नप्पा पन्नत्ता - तं जहा - दुद्धे, मूढे वुग्गाहिते। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2600] - स्थानांग - 3/3/4204 दुष्ट, मूर्ख और ब्रहके हुए को प्रतिबोध देना-समझा पाना बहुत कठिन है। 310. कलह से असमाधि कलहकरो डमरकरो असमाहिकरो । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2601] - दशाश्रुतस्कन्ध-1 - आवश्यकनियुक्ति 24087 कलह - झगड़ा करनेवाला असमाधि को उत्पन्न करनेवाला है। 311. दुःशील, गर्दभवत् . दुस्सीलाओ खरो विव । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2601] - आवश्यक कथा दुःशील (निर्लज्ज दुष्ट) व्यक्ति विष्टाभक्षक गधे के समान होता है। 312. ततो ठाणाइ देवेपीहेज्जा । तं जहा-माणुस्सगं भवं, आरितेखेत्ते जम्मसुकुलपच्चायाति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2607] - स्थानांग 380084 देवता भी तीन बातों की इच्छा करते रहते हैं-मानव-जीवन, आर्यक्षेत्र में जन्म और श्रेष्ठ कुल की प्राप्ति । 313. अंधे को दर्पण जो वि पगासो बहुसो, गुणिओ पच्चखओ न उवलद्धो। जच्चंधस्स व चंदो फुडो वि संतो तहा स खलु ॥ देवाकाङ्क्षा अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 135
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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