SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 204. मानस तप मनः प्रसादः सौम्यत्वं, मौनमात्मविनिग्रहः । भावसंशुद्धि रित्येतद्, मानसं तप उच्यते ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2205] . - भगवद्गीता 1706 . मन की प्रसन्नता, सौम्यभाव, मौन, आत्म-निग्रह तथा शुद्ध भावना - ये सब 'मानस' तप कहे जाते हैं। 205. मानस-तप श्रेष्ठ शारीराद्वाङ्गमयं सारं, वाङ्गमयान्मानसं शुभम् । जघन्यमध्यमोत्कृष्ट-निर्जरा करणं तपः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2205] - गच्छाचारपयन्नासटीक ? अधि. शारीरिक से वाचिक और वाचिक से मानसिक तप श्रेष्ठ माना गया है और यह तप जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट रूप से निर्जरा का कारण है । 206. तप से निर्जरा तवेणं वोयाणं जणयइ । .. - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2205] - उत्तराध्ययन - 29/28 तप से व्यवदान अर्थात् कर्मों की निर्जरा होती है। 207. शारीरिक तप देवद्विजगुस्माज्ञ, पूजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2205] - भगवद्गीता 1714 देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह 'शारीरिक' तप कहा जाता है । ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सृक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 109 - -
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy