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________________ सत्यव्रत में रुचि रखनेवाले तेजस्वी पुरुष प्राणों को भी सुखपूर्वक छोड़ देते हैं, किन्तु वे अत्यन्त शुद्ध हृदयवाली एवं अनुकूल आचरण करनेवाली अपनी माता के समान लज्जादि गुण समूह को उत्पन्न करनेवाली प्रतिज्ञा को कभी नहीं छोड़ते। 162. पञ्चामृत नियमाः शौचसन्तोषौ स्वाध्यायतपसी अपि । देवताप्रणिधानं च, योगाऽऽचायैरुदाहृताः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2093] - द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिका. 222 योगाचार्यों ने पाँच नियम योग के लिए पञ्चामृत के रूपमें निर्दिष्ट किए हैं-इनमें प्रथम अमृत पवित्रता, (मन-वचन-शरीरसे) दूसरा अमृत सन्तोष, तीसरा अमृत स्वाध्याय, चौथा अमृत तपश्चर्या तथा पाँचवां अमृत ईश्वर-प्रणिधान या देवस्तुति कहा है। 163. पाषाणहृदय .. जो उ परं कंपंत, गुण न कंपए कढिणभावो । एसो य निरणुकंपो, पणत्तो वीयरागेहि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2108] एवं [भाग 5 पृ. 1514] एवं [भाग ? पृ. 225] - बृहत्कल्पभाष्य 1320 कठोर हृदयवाला व्यक्ति दूसरे को पीड़ा से काँपता हुआ देखकर भी प्रकम्पित नहीं होता, वह अनुकंपारहित कहलाता है । चूँकि अनुकंपा का अर्थ ही है-काँपते हुए को देखकर कंपित होना। 164. मृत्युदर्शी से तिर्यञ्चदर्शी जे मारदंसी से णिस्यदंसी, जे णिरयदंसी से तिरियरंसी। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2109] - आचारांग - 1/R/A130 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 . 98
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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