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________________ जे मे गुरु सयय मणुसासयंति, ते हं गुरु सययं पूययामि ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 940] - दशवैकालिक 9403 लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य – ये चारों कल्याणभाजन के लिए विरोधि स्थल है। वह (शिष्य) मानता है कि जो गुरु मुझे इनकी सतत शिक्षा देते हैं; मैं सतत उनकी पूजा-भक्ति करता हूँ। 189. गुरु-भक्ति-स्वरूप अभ्युत्थानं तदालोकेऽभियानं च तदागमे । शिरस्यञ्जलि संश्लेषः स्वयमासन ढौकनम् ॥ आसनाभिग्रहो भक्त्या वन्दना पर्युपासना । तद्यानेऽनुगमश्चेति प्रतिपत्तिरियं गुरोः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 943] - योगशास्त्र 125-126 . गुरु को देखते ही खड़े हो जाना, आने पर सामने जाना, दूर से ही मस्तक पर अञ्जलि जोड़ना, बैठने के लिए स्वयं आसन प्रदान करना, गुरु के बैठ जाने के बाद बैठना, भक्तिपूर्वक वंदना और उपासना करना, उनके गमन करने पर कुछ दूर तक अनुगमन करना, यह सब गुरु की भक्ति है। 190. गुर्वाज्ञा भंग . गुरु आणभंगम्मि सव्वेऽणत्था जओ भणितं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 944] - पञ्चाशक सटीक 5 विव. जैसाकि कहा गया है – गुर्वाज्ञा भंग करने पर सारे अनर्थ होते हैं अर्थात् गुर्वाज्ञा - भंग करना सारे अनर्थों की जड़ है। 191. दुरातिदूर शिष्य गुरूमूले वि वसंता, अनुकूला जे न होंति उ गुरुणं । एएसि तु पयाणं, दूर दूरेण ते होंति ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-3 . 103
SR No.002318
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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