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________________ 140. सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अमृद्दाणि। णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होंति।। सण्णाओ तिलेस्सा इंदियवसदा अट्टरुद्दाणि (सण्णा ) 1/2 अव्यय [(ति) वि-(लेस्सा) 1/2] [(इंदिय)-(वसदा) 1/1] अव्यय [(अट्ट) वि-(रुद्द) 1/2] (णाण) 1/1 अव्यय (दुप्पउत्त) भूक 1/1 अनि (मोह) 1/1 (पावप्पद) 1/2 वि (हो) व 3/2 अक संज्ञाएँ और तीन लेश्याएँ इन्द्रियों की अधीनता तथा आर्त और रौद्र ध्यान ज्ञान और दुरुपयोग किया हुआ आत्मविस्मृति पाप-देनेवाले होते हैं णाणं दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होति अन्वय- सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अट्टहाणि दुप्पउत्तं णाणं च मोहो पावप्पदा होति। अर्थ- संज्ञाएँ और तीन लेश्याएँ, इन्द्रियों की अधीनता तथा आर्त और रौद्र ध्यान, दुरुपयोग किया हुआ ज्ञान और आत्मविस्मृति- (ये सभी) पापदेनेवाले होते हैं। 1. संज्ञाः आहार, भय, मैथुन, परिग्रह 2. लेश्याः कृष्ण, नील, कापोत इन्द्रियः स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण 3. पंचास्तिकाय (खण्ड-2) नवपदार्थ-अधिकार (43)
SR No.002307
Book TitlePanchastikay Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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